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शनिवार, 20 जुलाई 2013

बाल-नाटिका व्यास - गणेश


व्यास - गणेश 

बाल नाटिका

पात्र- व्यास, वैशम्पायन, ब्रह्मदेव, गणेश,  मूषक, एक ज्यूनियर शिष्य.

प्रसंग- महाभारत- लेखन

[ स्टेजपर सभी पात्र होंगे। वे अलग अलग स्थानों पर जाकर अलग- अलग गुटों में आपस में संवाद करेंगे.]

व्यास व वैशम्पायन स्टेजके मध्यमें आकर --
वैशंपायन- गुरुजी प्रणाम। आज आप अत्यंत प्रसन्न हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप जिस काव्य की रचना कर रहे थे, वह पूरा हो गया है।

व्यास- सत्य कह रहे हो वत्स वैशंपायन! पिछले कई दिनों से इस महा काव्य की पंक्तियाँ मेरे मन में उमड- घुमड रही हैं। मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ तो एक एक श्लोक का स्मरण होता है।

वैशंपायन- गुरुजी अब आपके महाकाव्य को लिखने का भी कोई प्रबन्ध होना चाहिये ताकि उसके विभिन्न खंडोपर अलग अलग विद्वान् चर्चा करें और उसे अधिकाधिक लोगोंको सुना सकें।

व्यास- योग्य कहा वत्स! अब यह विचार करने का समय आ गया है कि इतने विशाल काव्य को लिखने में कौन समर्थ है।

(ज्यूनियर  शिष्य जो स्टेजपर  एक  दूसरे कोने  में अकेला खडा  है और खिडकी  से बाहर देख  रहा  है, वह दौडते  हुए व्यास के पास  आता  है)

ज्यू. शिष्य- गुरुजी, गुरुजी। देखिये तो कौन आ रहा है। साक्षात् ब्रह्मदेव आश्रम में आ चुके हैं और आप के कक्षकी ओर आ रहे हैं।

व्यास- अरे तो पुत्र, मुझे शीघ्र वहाँ ले चलो। वैशम्पायन, उनके लिये आसन व तत्पश्र्चात् सुगंधी पुष्पोंकी व्यवस्था करो।

[व्यास  व  ज्यू.शिष्य  जाने  लगते  हैं- वैशम्पायन  स्टेज के एक  भाग में रखी  हुई  कुर्सी  सरकाकर  बीच में ले आता है। ब्रह्मदेव भी अपने कोने से निकलकर व्यास की और बढते हैं।-  बाद में तीनों को कुर्सी के पास आना है)]

व्यास- ब्रह्मदेव को झुककर नमन करते हुए- प्रणाम प्रपितामह। मेरे अहोभाग्य की आज आपने मेरी कुटी में पधार कर मुझ पर कृपा की। आइये, आसन ग्रहण करें।

[ब्रह्मदेव को लाकर कुर्सी पर बैठता है । ज्यू. शिष्य और वैशम्पायन अगली व्यवस्था के लिये स्टेज के दूसरे कोने मे जाते हैं]

ब्रह्मदेव- पुत्र व्यास, मेरा आशीर्वाद ग्रहण करो। मुझे सूचना मिली है कि तुम किसी महाकाव्य की रचना कर रहे हो।

व्यास- सत्य है भगवन्। यह काव्य भी है और इतिहास भी। कुरुवंश के प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी व अपने अनुजों के साथ धर्म और  न्याय के अनुसार राज्य किया। परन्तु ऐसे धर्मराज्य की स्थापना के लिये उन सभी को महान् संघर्ष करना पडा। उसी संघर्ष गाथा को मैंने श्लोक बद्ध किया है।

ब्रह्मदेव- यह समुचित कार्य हुआ। पाण्डवों ने जिन गुणों को निभाते हुए अपना आत्मबल बढाया और जय प्राप्त किया उन गुणों का जन- जन के मानस में प्रभाव रहे और जनसमुदाय भी उन गुणों को अपनाये, इस हेतू ऐसा महाकाव्य लिखा जाना महत्वपूर्ण है। व्यास, मैं तुम्हें साधुवाद देता हूँ।

व्यास- परन्तु पितामह, मेरे मन में एक चिन्ता है।

ब्रह्मदेव- मुझे ज्ञात है कि तुम्हारी चिंता क्या है। उसी संबंध में तुम्हें सुझाव देना है। निःसंकोच कहो- क्या चिंता है?

व्यास- भगवन्। पाण्डवों के जय की यह कथा अत्यंत विशाल है। मैं श्लोक रचता गया और उन्हें अपने मन में संजोकर रख लिया। अब उनकी संख्या लगभग दो लाख हो गई है। इतना प्रदीर्घ काव्य लिख लेने में कौन समर्थ होगा?

ब्रह्मदेव- पुत्र व्यास, आज विश्वमें ऐसा एक ही समर्थ व्यक्ति है और वह है परम बुद्धिमान श्री गणेश। तुम उन्हीं को प्रार्थनापूर्वक इस कार्य के लिये निमंत्रण दो। परन्तु स्मरण रखना कि श्रीगणेश विनोदप्रिय भी हैं। कुछ न कुछ नटखटपन अवश्य करते हैं।

(दोनो हँसते हैं)

व्यास- मैं स्मरण रखूँगा भगवन्। यथा संभव उन्हें उलझा दूँगा ताकि वे व्यस्त रहें और कुछ अन्य कौतुक ना करें।

ब्रह्मदेव- तो में चलता हूँ। तुम्हारा कार्य संपन्न हो।

(वैशम्पायन  कुछ  सुगंधी  पुष्य लेकर  आता है और ब्रह्मदेव उन्हें लेते हुए स्टेज में पीछे जाते हैं। स्टेज के दूसरे भाग मे व्यास और गणेश मिलते हैं)

व्यास- श्री गणेशजी,  आपको नमन है। आपने मेरी प्रार्थना पर गौर किया और यहाँ पधारे। आपका स्वागत है।

गणेश- आप जैसे विद्वानों के साथ चर्चा का सुअवसर मिले तो मैं भी हर्षित होता हूँ। कहिये, क्या इच्छा रखकर आपने मेरा स्मरण किया?

(व्यास और गणेश दो अलग दिशाओं में जाते हैं। गणेश अपने मूषक के साथ और व्यास वैशम्पायन के साथ बात करते हैं)

गणेश- हा, हा, हा मूषक । मैंने मुनिश्रेष्ठ व्यास को संकट में डाल ही दिया।

मूषक- (हँसता है)- यह आपके स्वभाव के अनुकूल ही है कि आप बुद्धिमानों की परीक्षा लेते रहें। मुनिवर के साथ आपने क्या कौतुक रचाया?

गणेश- सुनो मूषक, महर्षि व्यास ने एक महान इतिहास को महान ग्रंथकाव्य के रूप में रचा है। वह विश्व का महानतम ग्रंथ होगा इसमें कोई संदेह नही। महर्षि ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं उसे लेखनी बद्ध करूँ।

मूषक- उचित प्रस्ताव है श्रीगणेश। ऐसा महान ग्रंथ यदि लिखा जाता हो, तो आपके सिवा उसे कौन लिख सकता है ! फिर आपने क्या कौतुक किया?

गणेश- हा, हा। मैंने एक पण उनके सामने रख्खा कि उनका श्लोक कथन इतनी शीघ्रगति से हो कि मेरी लेखनी रुके नही। यदि श्लोक रचना के विचार करने के लिये वे रुक गये और मेरी लेखनीको भी रुकना पडा तो उसके आगे मैं नही लिखूँगा। परन्तु मूषक, महर्षि व्यास भी कम बुद्धिमान नही।

(दूसरे कोने में व्यास और वैशंपायन का संवाद-)

वैशंपायन- गुरुजी, यह तो अच्छा समाचार है कि स्वयं श्री गणेश आपके महाकाव्य को लिपी बद्ध करने वाले हैं। मैं आसनदि सारी व्यवस्था तत्काल करता हूँ। क्या वे सचमुच इतनी सरलता से मान गये?

व्यास-(हँसकर)- नही वत्स। ब्रह्माजीने सत्य ही कहा था। श्री गणेश की स्वयं की बुद्धि और शिव- पार्वती का लाड- प्यार  ! दोनों का ऐसा मिश्रण है कि विद्वानों से प्रेम रखते हुए भी उनकी परीक्षा लेने में गणेश को सर्वदा आनंद मिलता है। मेरे सम्मुख भी यह पण रख्खा है कि उनकी लेखनी को रुकना न पडे। मैं शीघ्रता से श्लोक कथन करता चलूँ।

वैशंपायान- (हँसता है)- ब्रह्माजी ने सही कहा था कि गणेशजी कुछ न कुछ कौतुक रचेंगे। अब आप क्या करेंगे गुरुजी?

व्यास- मैंने भी अपना पण रख दिया।  कि जब तक मेरे श्लोक का गूढार्थ न समझ लें तब तक गणेश उसे नही लिखेंगे।  अब मैं कुछ ऐसे गूढ श्लोकोंकी रचना करूँगा कि गणेशको अर्थ समझनेमें  थोडा समय लगे। उतने अवकाश काल में मैं अगले कई श्लोक योग्य अनुक्रम में बांध लूँगा।

     [ मूषक, गणेश, वैशंपायन और व्यास स्टेज में पीछे चले जाते हैं। ब्रह्मदेव स्टेज के बीचोंबीच आते हैं और दर्शकों से निवेदन करते हैं -

ब्रह्मदेव - और इस प्रकार महर्षि व्यास ने जय नामक इतिहास ग्रंथकी रचना की जो महाभारत के नामसे विख्यात हुआ। इसे स्वयं गणेशने लिखा और संसार में लेखन कला को प्रस्थापित किया । जय श्री गणेश.
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गुरुवार, 18 जुलाई 2013

सोहमचे काऊ-चिऊ

सोहमचे काऊ-चिऊ

कावळा असतो काळा काळा
करतो काव काव काव
रोज म्हणतो सोहमला
पोळी द्या ना राव

मोर म्हणतो पियाँऊँ
मी किती छान नाचतो
रंगबेरंगी पंख माझे
सगळ्यांना आवडतो

इटुक पिटुक फूलचुसी
लांबच लांब चोच तिची
सुर्रप सुर्रप मध खाण्या
करते फुलांशी दोस्ती

कोकिळ गातो गोड गाणे
पंचमाची लाउन तान
कुहु कुहु चिडवले तर
होतो खूप हैराण

चिऊ चिऊ चिमणी दाणे टिपते
झाडांत तिचा चिवचिवाट
मातीत लोळते, पंख घुसळते

बघा तेंव्हा तिचा थाट

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

घोडा अडला - परीक्षा झाली तणावाची

घोडा डला - परीक्षा झाली तणावाची
                          ... लीना मेहेंदळे

   अकबर बिरबलाच्या गोष्टींमध्ये ही एक छानशी गोष्ट आहे.  अकबराने आपल्या दरबा-यांना चार प्रश्नांच एक कोड टाकल.  उत्तर एकाच ओळीत द्यायचे होते.

   त्याने विचारले
- 1) रोटी क्यूँ जली ?
- 2) विद्या क्यूं गली
- 3) पानी क्यूँ सडा ?
- 4) घोडा क्यूँ अडा ?

नेहमी प्रमाणे बिरबलाने खूप वेळ वाट पाहिली.  इतर दरबा-यांना संधी दिली.  आणि कोणालाच उत्तर  येत नाही असे पाहून त्याने कोडयाचे उत्तर तीनच शब्दात सांगितले. - फेरा था

फेरा - म्हणजे फिरवणे, उलटणे, गतीशील ठेवणे.
   तव्यावरची पोळी उलटली नाही तर जळते, पाणी एकाच ठिकाणी साठवून राहिले तर सडते, त्यामध्ये किडे, डास, शेवाळ इ. साठतात. खळखळून वाहणारे पाणी शुध्द होत राहत.  घोडा एकाच ठिकाणी बांधून ठेवला, त्याला फिरु दिलं नाही तर त्याचं पाय आखडतात.  मग गरजेच्या वेळी तो धावू शकत नाहीतो अडतो.  या सर्व समस्यांचे उत्तर एकच - त्यांना हलतं, फिरत ठेवणं, वेळच्या वेळी उलटणं थोडक्यात त्यांचेकडे लक्ष देवून त्यांची क्षमता कमी होत नाही ना ? हे पाहण आपल्या आजूबाजूलापण अशी फेरा नसल्याची खूप उदाहरण दिसतात.  अभ्यासाची उजळणी   करणे, रस्ते, इमारती, नदीचे बांध, कालवे यांची वेळेवर दूरुस्ती करणे.  आपण कामात किती मागे पडलो ? ते तपासून पाहणे.  आपल्या नियमात काय दुरुस्त्या करण्याची गरज आहे ? याचा विचार करणे. ही सर्व फेरा नसल्याचीच उदाहरणे आहेत.
   आपल्याकडे सुमारे दीडशे वर्षोपासून चालत आलेला एक नियम नव्या युगाच्या दिशेने बदलला तर, विद्यार्थ्यांचा कसा फायदा होईल ? ते पाहू.
   आपल्या परिक्षा होतात, त्यासाठी कोणीतरी शिक्षक पेपर सेट करतात.  ही एक मोठी डोकेदुखीच असते.  म्हाणून वर्षाला कसाबसा एक पेपर सेट केला जातो.  परिक्षेला सुमारे दहा लाख पेक्षा जास्त विद्यार्थी असतात एवढया सर्वांसाठी एकच पेपर्स छापायचे.  ते फुटू नयेत म्हणून खूप काळजी घ्यायची.  पेपर एकदाच सेट करायला लागायचा एकदाच छापायला लागायचा म्हणून सगळया विद्यार्थ्यांची परिक्षा एकदम घ्यायची.  हे सगळे नियम 1850 मध्ये आपल्याकडे शाळा आणि परिक्षेची पध्दत लागू झाली तेव्हापासून चालत आले आहेत.  दीडशे वर्षे लोटली.  पूर्वी देशभरात काही हजार मुले परिक्षा देत.  आता काही कोटी मुले परिक्षा देतात.  म्हणजे यंत्रणेवर केवढा ताण येत असेल पहा.  विद्यार्थ्यांवर तर भयानकच ताण असतो.  अगदी आत्महत्येपर्यंत.
   आता विचार करा.  आता संगणकाचे युग सुरु झाले आहेत.  संगणकाला आपण खूपसे (म्हणजे समाजा पाच, दहा हजार) प्रश्न सांगून ठेवले, तर तो त्यांची उलटसूलट जुळणी करुन आपल्याला हवी तेव्हा एक प्रश्नपत्रिका तयार करुन देवू शकातो.  त्याला सांगायचे, आपल्याला चवथीच्या लायकीचा पेपर हवा कि नववीच्या, कि बारावी किंवा चौदावी ? तेवढच आपण संगणकाला सांगायचे, तसेच भूगोलाचा पेपर हवा कि गणिताचा ? किंवा इतर कुठल्या विषयाचा, ते ही सांगायचे.  अशा त-हेने सोय केली तर दर महिन्याला परिक्षा घेता येतील.  कितीही वेळा परिक्षेला बसलं तरी चालेल, आपल्या सोयीने आपल्याला अभ्यास झालेला आहे असे पटेल तेव्हा. मग शिक्षकावर जबाबदारी फक्त उत्तर पत्रिका तपासण्याची.  तेव्हा एकदम चार / पाच लाख नाही, तर थोडे थोडे. अशा त-हेने हवे तेव्हा जावून हव्या त्या विषयाची परिक्षा देवून टाकता आली तर सगळे भयानक ताण कमी होतील की नाही ? मग आपण आपलं पहिली ते बारावी फक्त पुढच्या वर्गात सरकत रहायचं.  दरवर्षी मार्चमध्येच सगळया परिक्षांचा ताण असले काही नाही.  हवे तेव्हा, हव्या त्या, परिक्षा आटोपून टाकायच्या.
   पहाच विचार करुन, आवडेल का अशी पध्दत ?

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