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सोमवार, 2 मई 2016

राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज

राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज

30 अप्रैल ''महान सन्त समाजसुधारक राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज'' की 107 वी जयंती के उपलक्ष में तुकडोजी महाराज के चरणों में हमारे धोपावकर बंधू एवम परिवार अहमदनगर की ओर से कोटि कोटि शिरसाष्टांग दंडवत - सादर प्रणाम।
राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज (जन्म 30 अप्रैल1909 – मृत्यु 11 अक्टूबर1968) बीसवीं सदी के एक महान सन्त समाजसुधारक थे। उनका मूल नाम माणिक बन्डोजी इंगळे था। परमपूजनीय राष्ट्रसंत तुकडोजी का जन्म 30 अप्रैल1909 को महाराष्ट्र राज्य (भारत) के अमरावती जिले के (जनपद के) ग्राम यावली नामक एक दूरदराज के गाँव के एक बहुत ही गरीब निर्धन परिवार में हुआ था। इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा यावली और वरखेडमें पूरी की। अपने प्रारंभिक जीवनमें ही उनका संपर्क बहुत सारे महान संतोंके साथ हो गया था। वे समर्थ आडकोजी महाराज के शिष्य थे। आडकोजी महाराज ने उनके ऊपर अपने स्नेह की वर्षा की और उन्हें योग शक्तियों से विभूषित किया।
तुकडोजी महाराज एक महान व स्वयंसिद्ध संत थे। उनका प्रारंभिक जीवन आध्यात्मिक और योगाभ्यास जैसे साधना मार्गों से पूर्ण था। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन का अधिकांश समय रामटेक,सालबर्डी,रामदिघी और गोंदोडा के बीहड़ जंगलों में बिताया था।यद्यपि उन्होंने औपचारिक रूप से बहुत ज्यादा शिक्षा नहीं ग्रहण की थी,किंतु उनकी आध्यात्मिक भावना और उसकी संभाव्यता बहुत ही उच्च स्तरकी थी। उनके भक्ति गीतों में भक्ति और नैतिक मूल्योंकी बहुत ही ज्यादा व्यापकता है। उनकी खँजड़ी, एक पारंपरिक वाद्य यंत्र,बहुत ही अद्वितीय थी और उनके द्वारा उसे बजाया जाना अपने आपमें अनूठा था। हालांकि वह अविवाहित थे;परंतु उनका पूरा जीवन जाति,वर्ग,पंथ या धर्म से परे समाज की सेवा के लिए समर्पित था। वह पूर्णरूप से आध्यात्मिक जीवन में लीन थे। उनके द्वारा सूक्ष्मता से मनुष्यके स्वभाव का अवलोकन किया जाता था, ताकि उन्हें उत्थानके राह पर प्रवृत्त किया जा सके।
उनके पास स्वानुभूत दृष्टि थी और उन्होंने अपने पूरे जीवनमें हृदय की पवित्रता और किसीके लिए भी मनमें द्वेषभाव न रखनेका पाठ पढ़ाया। अपने प्रारंभिक जीवनमें वह प्रायः भक्तिपूर्ण गीतोंको गाते थे,हालांकि बीतते समयके साथ-साथ उन्होंने समाज को यह बतलाया कि भगवान केवल मन्दिर,चर्च या मस्जिद में नहीं रहता;अपितु वह तो हर जगह व्याप्त है। उसकी (भगवानकी) शक्ति असीम है। उन्होंने अपने अनुयायियों को आत्मबोध के पथपर चलने की सलाह दी। उन्होंने दृढ़तापूर्वक पुरोहिताई का विरोध किया और आंतरिक मूल्यों एवं सार्वभौमिक सत्यका प्रसार किया। तुकडोजी महाराज ने सामूहिक प्रार्थना पर बल दिया जिसमें जाति-धर्मसे परे सभी लोग भाग ले सकें। संपूर्ण विश्वमें उनकी प्रार्थना पद्धति वस्तुतः अद्वितीय और अतुलनीय थी। उनका दावा था कि उनकी सामूहिक प्रार्थना पद्धति समाज को आपस में भाईचारे और प्रेमकी शृंखला में बाँध सकने में सक्षम है।
तुकडोजी महाराज ने 1935 में सालबर्डी की पहाड़ियोंपर महारूद्र यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें तीन लाखसे अधिक लोगोंने भाग लिया। इस यज्ञ के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और वे पूरे मध्य प्रदेश में सम्माननीय हो गए। 1936 में महात्मा गाँधी द्वारा सेवाग्राम आश्रम में उन्हें निमंत्रित किया गया,जहाँ वह लगभग एक महीने रहे। उस के बाद तुकडोजी महाराज ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमों द्वारा समाज में जन जागृतिका काम प्रारंभ कर दिया,जो 1942 के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामके रूप में परिलक्षित हुआ। राष्ट्रसंत तुकडोजी के ही आवाहन का परिणाम था – आष्टि-चिमुर स्वतंत्रता संग्राम। इसके चलते अंग्रेजों द्वारा उन्हें चंद्रपुर में गिरफ्तार कर नागपुर और फिर रायपुर के जेल में100 दिनों (28 अगस्त से ०2 दिसंबर 1942 तक) के लिए डाल दिया गया। कारागृह (जेल) से छूटने के बाद तुकडोजी महाराज ने सामाजिक सुधार आंदोलन चलाकर अंधविश्वास
,अस्पृश्यता,मिथ्या धर्म,गोवध एवं अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने नागपुरसे 120 किमी दूर मोझरी नामक गाँवमें गुरूकुंज आश्रम की स्थापना की,जहाँ उनके अनुयायियों की सक्रिय सहभागिता से संरचनात्मक कार्यक्रमों को चलाया जाता था। आश्रम के प्रवेश द्वारपर ही उनके सिद्धांत इस प्रकार अंकित हैं – “इस मन्दिर का द्वार सब के लिए खुला है”, “हर धर्म और पंथ के व्यक्ति का यहाँ स्वागत है”, “देश और विदेश के हर व्यक्ति का यहाँ स्वागत है” स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ने अपना पूरा ध्यान ग्रामीण पुर्ननिर्माण कार्यों की ओर लगाया और रचनात्मक काम करने वालों के लिए कई प्रकार के शिविरों को आयोजित किया। उनके क्रियाकलाप अत्यधिक प्रभावकारी और राष्ट्रीय हित से जुड़े हुए थे। तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने गुरूकुंज आश्रम के एक विशाल समारोह में उनके ऊपर अपना स्नेह समर्पित करते हुए आदर के साथ “राष्ट्रसंत” के सम्मान से प्रतिष्ठित किया। उस समय से उन्हें लोग अत्यधिक आदर के साथ “राष्ट्रसंत” के उपनाम से बुलाने लगे।
‘ग्रामगीता’ की रचना -- अपने अनुभवों और अंतदृष्टिके आधारपर राष्ट्रसंत ने “ग्रामगीता” की रचना की,जिस में उन्होंने वर्तमानकालिक स्थितियों का निरूपण करते हुए ग्रामीण भारत के विकास के लिए एक सर्वथा नूतन विचार का प्रतिपादन किया। 1955 में उन्हें जापान में होने वाले विश्व धर्म संसद और विश्व शांति सम्मेलन के लिए निमंत्रित किया गया। राष्ट्रसंत तुकडोजी द्वारा खँजड़ी के स्वर के साथ दोनों ही सम्मेलनों का उद्‍घाटन सम्मेलन कक्ष में उपस्थित हजारों श्रोताओं की अत्यधिक प्रशंसा के साथ हुआ।
भारत साधु समाज का गठन -- राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज द्वारा 1956 में भारत साधु समाज का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न संपद्रायों,पंथों और धार्मिक संस्थाओं के प्रमुखों की सक्रिय सहभागिता देखने को मिली। यह स्वतंत्र भारत का पहला संत संगठन था,और इसके प्रथम अध्यक्ष तुकडोजी महाराज थे। 1956 से 1960 की वर्षावधि के दौरान उन्हें विभिन्न सम्मेलनों को संबोधित या संचालित करने के लिए निमंत्रित किया गया। उनमें से कुछ सम्मेलन हैं – भारत सेवक समाज सम्मेलन,हरिजन सम्मेलन,विदर्भ साक्षरता सम्मेलन,अखिल भारतीय वेदान्त सम्मेलन,आयुर्वेद सम्मेलन इत्यादि। वह विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक उपाध्यक्षों में से एक थे। उनके द्वारा राष्ट्रीय विषयके कई सारे मोर्चों जैसे- बंगाल का भीषण अकाल (1945 ),चीन से युद्ध (1962 ) और पाकिस्तान आक्रमण (1965 ) पर अपनी भूमिका का निर्वाह तत्परता से किया गया। कोयना भूकंप त्रासदी (1962 ) के समय राष्ट्रसंत ने प्रभावित लोगों की त्वरित सहायता के लिए अपना मिशन चलाया और बहुत सारे संरचनात्मक राहत कार्यों को आयोजित किया।
साहित्यिक योगदान-- तुकडोजी महाराज का साहित्यिक योगदान बहुत अधिक और उच्च श्रेणी का है। उन्होंने हिंदी और मराठी दोनों ही भाषाओं में तीन हजार भजन,दो हजार अभंग,पाँच हजार ओवीस के अलावा धार्मिक,सामाजिक,
राष्ट्रीय और औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षापर छह सौ से अधिक लेख लिखे। राष्ट्रसंत तुकडोजी एक स्वयं द्वारा जगमगाता तारा और एक गतिशील नेता थे। वह कई सारी कलाओं और कौशलों के ज्ञाता थे। आध्यात्मिक क्षेत्र में वह एक महान योगी के रूपमें जाने जाते थे,तो सांस्कृतिक क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि एक ओजस्वी वक्ता और संगीतज्ञ के रूप में थी। उनका व्यक्तित्व अतुलनीय और अद्वितीय था। उनके व्यक्तित्व के बहुत सारे पहलू थे एवं उनकी शिक्षाएं आने वाली पीढ़ियों के नित्य एवं उपयोगी हैं।
अंतिम दिनोंमें राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज को कैंसर हो गया था। उस घातक बीमारी का इलाज करने के हरसंभव उपाय किये गये;परंतु कोई प्रयास सफल न हुआ। अंतमें,11 अक्टूबर1968 को सायं 0 4-58 बजे गुरूकुंज आश्रम में राष्ट्रसंत अपने नश्वर शरीर का त्यागकर ब्रह्मलीन हो गये। उनकी महासमाधि गुरूकुंज आश्रम के ठीक सामने स्थित है,जो सभी लोगोंको कर्तव्य और निस्वार्थ भक्ति के मार्गपर चलने की प्रेरणा प्रदान करती है। कल्याणकारी चहुंमुखी विकास के लिए परम पूजनीय राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज की शिक्षा का अनुपालन कर हमें अपने जीवन और चरित्र का निर्माण करना चाहिए।