सच्चाई का संस्कार
published in Himalayan Oasis, Simla, issue 2
--लीना मेहेंदळे--
सच्चाई का संस्कार एक बहुत बडी बात होती है। जब मनुष्य ने बोलना सीखा तो वह पूरा प्रकटन इस लिये था कि दिल की बात, मन के विचार, जो अनुभूतियों के स्पंदनसे जागृत होते हैं उन्हें दूसरों तक पहुँचाया जाय, उनका संचरण हो। लेकिन धीरे धीरे मनुष्यने जाना कि बोलते बोलते झूठ भी बोला जा सकता है। उसके बाद ज्ञानी, ऋषि और तपास्वियों ने, जाना कि मनुष्यके व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक उत्थान में सत्य की क्या जरुरत है और झूठको क्यों नकारना है। इस प्रकार मानव विकास के इतिहास मे जब पहली बार 'बोलना' एक ज्ञान माध्यम के रुप मे आया तब 'बोलने' का अर्थ था 'सच बोलना'। फिर जैसे जैसे सामाजिकता बढी, झूठ भी एक कला के रुप में उभरा। फिर सामाजिक नीति की बात आई तो फिर सच्चाई की दुहाई की आवश्यकता पडी।
हमारे वेद पुराणों मे जो बार बार सत्य पर जोर दिखता है, वह क्योंकर ? सात घोर नरकों की तरह सात दिव्य लोक भी बताये गये है जिनमें सबसे ऊपर, सबसे श्रेष्ठ है सत्य लोक - जहाँ ईश्र्वर का वास माना गया है।
एक वैदिक ऋचा है- सत्यं वद, धर्मं चर। यानी सच बोलो और धर्म निभाओ। हमारी प्रार्थना है- असतो मा सत् गमय । यानी मुझे असत्य की राह से हटाकर सच्चाई की राह पर ले चलो । मांडूक्य उपनिषद कहता है - सत्यमेव जयते नानृतम् । यानी सचही जीतेगा झूठ कभी नही । और ईशावास्योपनिषद् ने तो एक सुंदर कविता कह दी-
हिरण्मयेन पात्रेन सत्यस्यापिहितम् मुखम्।
तत्वम् पूषन् अपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।
यानी कि सच का मुहाना एक सोने के ढक्कन से ढका पडा है (लोग उस सोने से ही चौंधिया जाते हैं और सच्चाई को देखने की ललक खो बैठते हैं)। तो हे सूर्य, तुम अपनी तेजस्विता से उस सोनेके परदे को दूर करो ताकि मैं सत्य का दर्शन कर सकूँ।
महाभारत की कथा ने सत्यका बखान ऐसा किया हैं - कि धर्मराज युधिष्ठिर चूँकि सदा सच बोलते थे, तो उनका रथ जमीन से चार अंगुल ऊपर चलता था। लेकिन जिस दिन युध्द भूमि में उसने यह दिया 'अश्र्वत्थामा हतः नरो ना कुंजरो वा', तो उस एक झूठसे उसने युध्द तो जीत लिया परन्तु उसका रथ भूमिपर वापस आ गया ।
मुझे लगता है कि बच्चों को सत्यधर्म का संस्कार बिलकुल आरंभ से और बडी सजगता से देना पडता है। उन्हें समझाना आवश्यक होता है कि सच का अर्थ है तह तक पहुँचना । सत्य एक ही हो सकता है और केंद्र बिंदु में वही रह सकता है । झूठ छिछला होता है और हर परत के साथ उखडने लगता है। वह - मनुष्य को ज्ञान, विज्ञान या आविष्कार तक नही पहुँचा सकता। लेकिन अपने रोज के जीवन के उदाहरणों से यह बात बच्चों को कैसे समझाएँ? इसके
लिये आवश्यक है बच्चों को विश्र्वास हो कि मातापिता उन्हें झूठ नही बताएँगे । सच्चाई बताने में एक साझेदारी का चिन्तन भी होता है। हम किसीसे सच कहते हैं तो अपने ज्ञानभंडार में उसे शामिल कर लेते हैं, उसकी हिस्सेदारी को कबूल कर लेते हैं। बच्चोंको यह लगना चाहिए कि मॉ बाप उन्हे साझेदार मानते हैं इसलिए सच ही बताएंगे। यह सच्चाई और साझेदारी का गणित भी उनके दिमाग में बैठाना पडता है।
साथही बच्चों से बार बार नही पूछना चाहिये कि तुम झूठ तो नही बोल रहे? माँ बाप या स्कूल में भी अक्सर पूछ लिया जाता है। दूसरी ओर आँखे बंद कर बच्चों पर विश्र्वास कर लेना भी ठीक नही। क्योंकि हो सकता है उन्होंने बाहर किसी दोस्त से झूठ बोलने का रिवाज सीख
लिया हो। ऐसे में बच्चों के सामने जबतक बडों का अपना उदाहरण न हो, आदर्श न हों, तब तक उन पर संस्कार कैसे बने?
हमारे बचपन में घर में हम तीन भाई बहन और माँ छुट्टी के समय अक्सर कॅरम, ताश, ल्यूडो, शतरंज आदि खेलते थे। कभी कभी पिताजी भी शामिल हो जाते थे। गर्मी की छुटियों मे आस पडोस और रिश्तेदारी के बच्चे भी आ जाते । इस बहाने हम सबकी एक साथ बैठने की, दुख - सुख बाँटने की कवायत भी पूरी हो जाती । झगडना और एक दूसरे को मनाना भी हो जाता। वह भी सहजीवन को बढावा ही देता है । लेकिन अपने बच्चों के समय मैंने देख कि सबके अलग अलग रुटीन थे। फिर मैंने एक अभिनव तरीका अपनाया । महिने मे कम से कम दो बार और जरूरत पडे तब तब हमने कॉन्फरंसिंग करने का नियम बनाया। सुबह ही जाहिर कर दिया जाता कि आज मैं इसकी जरूरत महसूस कर रहा हूँ या कर रही हूँ। अंदाजन समय भी तय हो जाता। एक घंटा इसके लिये निकालना अनिवार्य कर दिया था । इसमें हर सदस्य चार प्रकार की बातें अवश्य करेंगे - पिछली बार के बाद अबतक किस बात ने बहुत खुशी दी, या दुखी किया, घर के कौनसे क्रिटीकल काम पिछड रहे हैं और निकट भविष्य में किन बातों पर अधिक ध्यान देना पडेगा। अक्सर मैं ही अनाऊंसमेंट करती थी यानी थोडासा काम का जिम्मा अधिक, लेकिन यह प्रक्रिया बडी उपयोगी साबित हुई।
ऐसे मौके पर कई बार खुशी का उदाहरण देते हुए मैं किसीके सत्यवादिता की बात भी कह देती । और यह भी कि उस व्यक्तिपर मुझे कितना गर्व महसूस हुआ - भले ही उसका मेरा परिचय न हो । मुझे याद आता है कि एक दिन हमने इस बात पर कॉन्फरंसिंग की थी कि उस दिन एक लडकी - बच्छेंद्री पाल - एवरेस्ट की चोटी पर चढी थी ।
आज टी व्ही के जमाने इस तरह की कॉन्फरंसिंग का नियम बनाकर - आप देखें तो इसके अच्छ फायदे ही मिलेंगे। एक संस्कार यह भी शुरू हो जायगा।
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१५, सुनीति, जगन्नाथ भोंसले मार्ग, मुंबई ४०००३२
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