मराठीसाठी वेळ काढा

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रविवार, 5 अगस्त 2012

खरहे और कछुएकी दौड

खरहे और कछुएकी दौड -- मेरे नौ माहके पोतेको हिंदी तो सिखाना है। फिर इस मराठी 

बालगीतका भावान्तर कर डाला । यह कथा भी सबको मालूम है और मराठी बालगीतका यू-ट्यूब भी उसे 

पसंद है।



एक था खरहा, उजला उजला
कोमल कोमल बालोंवाला
उसकी आँखें लाल लाल
दुडुक दुडुक उसकी चाल
तेज तेज भागता
खेलने लग जाता ।

और एक था कछुआ ।
धीरे धीरे चलता
पर कामको पूरा करता ।

खरहेने कछुएको देखा
कछुएने खरहेको देखा ।

खरहा हँसा हो हो हो
कितना धीरे चलते हो।

चल, परबतपर चढते हैं
वहाँ पेडसे मीठे केले खाते हैं।

आओ दौड लगाएँ
जो जीते वह मीठे केले खाये ।

जीत-हार की बातें सुनकर
तोता आया, मैना आई, 
बंदर और गिलहरी आई ।

गिलहरीने सीटी बजाई
दौड दौड अब शुरू हो गई ।


खरहा भागा दुडुक दुडुक 
पहुँचा आधे रास्तेमें
देखी तितली देखी घास।
उडते पंछी नील आकाश।

पंछीके गाने सुनकर
लग गया बतियानेमें ।
घास देखी हरी हरी तो
मगन हो गया खानेमे।
खाते खाते नींद आई
दौडकी बातें भूला गईं।

कछुआ धीरे धीरे चला
चलता रहा चलता रहा । 
रुका नही थका नही 
इधर उधर भी देखा नही। 

पहुँचा सीधा परबतपर
बाजी गया जीत ।
ताली बजाई मैनाने 
बंदर गाये गीत ।

नींद खुली तो दौडा खरहा
भागा आया परबतपर
अरे, यहाँ तो बैठा कछुआ
बाजी पूरी जीतकर ।

कछुआ हँसा हो हो हो
बोला खरहे, सीख लो।
तेजभी हो तो रुकना मत
काम को बीचमें छोडो मत।
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