मराठीसाठी वेळ काढा

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मराठीत टंकनासाठी इन्स्क्रिप्ट की-बोर्ड शिका -- तो शाळेतल्या पहिलीच्या पहिल्या धड्याइतकाच (म्हणजे अआइई, कखगघचछजझ....या पद्धतीचा ) सोपा आहे. मग तुमच्या घरी कामाला येणारे, शाळेत आठवीच्या पुढे न जाउ शकलेले सर्व, इंग्लिशशिवायच तुमच्याकडून पाच मिनिटांत संगणक-टंकन शिकतील. त्यांचे आशिर्वाद मिळवा.

बुधवार, 30 मार्च 2011

क्रमशः लेख ल्रर्न मोर,

ना परतीची वाट -- लर्न मोर मे २०१०
हुषार गणिती -- लर्न मोर -- जून २०१०
Antariksha Yatra - learn More July 2010
मयूरपंखी यादगार - लर्न मोर- सप्टंबर २०१०
meri Rani Ki Kahani Learn More Oct 2010
ped se kaho learn more Nov 2010
Darpok Learn More Dec 2010

माहितीचा ढग -- लर्न मोर फेब्रु २०११
manu ani noha learn more Mar 2011
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लोकमत, पुणे
हुषार गणिती -01
ना परतीची वाट -02
कशी होती फड पद्घत -03
घोडा क्यों अडा ? -04
पांढरी फुले -05
चला बनवा आपापल्या माहितीचा ढग -06
सुंदर नक्षत्र -- मृगशिरा -07
पृथ्वीच्या पोटातला कार्बन काढू या नको. -08
मनु आणी नोहा -09
गुलाबाच्या फुलाने यावे -10
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शुक्रवार, 18 मार्च 2011

भाग 2 दिशा दर्शन --अपूर्ण नभांगण मधे शोधणे

भाग 2 दिशा दर्शन
चांदण्यांशी मैत्री करण्यासाठी थोडी उजळणी दिशांची आणि सूर्य-चंद्राच्या गतीची करायला ङवी.

रविवार, 6 मार्च 2011

जनमदिन एक लालका

जनमदिन एक लालका
2 अक्तूबर -- गाँधी जयन्ती की छुट्टी होती है और कई आयोजनोंसे पता लग जाता है कि गाँधी जयन्ती है। टीव्ही के चैनलोंपर बीच बीचमें "वैष्णव-जन" की धुन बजती है और नीचेके कोनेमें गाँधीजीकी छोटीसी छवि भी झलक जाती है तो समझ में आ जाता है कि गाँधी जयन्ती है। पर कई बार साथमें एक नाम और भी आ जाता है- लाल बहादुर शास्त्रीजीका। तो तुम सोचते होगे कि ये कौन थे। तो आओ तुम्हें बताऊँ कि मेंने कैसे कैसे उनके विषय में जाना।
माना कि बतौर प्रधान मंत्री उनका कार्यकाल छोटा ही था, लेकिन उपलब्धि बहुत बडी थी और उस उपलब्धिको याद रखना हमारा कर्तव्य है।
मुझे उनकी वो छोटी छोटी बातें याद हैं जिन्होंने उस जमाने में हमारे किशोर-मनोंको प्रभावित किया था ।
मुझे आज भी याद है 1965 के वो दिन। उन दिनों टीव्ही जैसी कोई वस्तु नही थी परन्तु रेडियोकी खबरे बडे ध्यानसे सुनी जाती थीं। पाकिस्तानके साथ लडाई छिड चुकी थी। सितम्बरकी एक शामका समय था और रेडियोसे घोषणा हो चुकी थी कि लडाई के
मुद्दोंपर प्रधानमंत्री राष्ट्रको संबोधित करेंगे। उसी वर्ष सूखेकी स्थिति थी और देशमें अनाज की कमी का संकट भी था। हम सभी प्रधानमंत्री का संबोधन सुननेको उत्सुक थे। तीन वर्ष पूर्व चीनके साथ हुई लडाईमें हार खानेका दुख सभी को घेरे हुए था। संबोधन शुरु हुआ और हमने सुना भी, और उनकी दो बातोंने न केवल दिलके अंदर घर कर लिया वरन् उनके लिये एक अटूट आदर भी जगा दिया। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान यह समझ ले कि हमार सबसे पहला गुण शांतिप्रियता है, परन्तु इसका यह अर्थ नही कि आक्रमणकी स्थितिमें हम मुकाबला करनेसे पीछे हटेंगे। पाकिस्तान किसी गलतफहमी में न रहे, हम डटकर मुकाबला करेंगे और जरुरत पडी तो आक्रामक भी हो जायेंगे। दूसरी ओर देशवासियोंसे उन्होंने अपील की कि देशपर विदेशी आक्रमण के साथ साथ अकाल का संकट भी है, अतः हर भारतीयका कर्तव्य है कि अनाजकी बरबादी को रोके। सीमाक्षेत्रमें लड रहे जवानों तक अन्न पहुँचाना आवश्यक है अतः प्रत्येक भारतीयसे अपील है कि हफ्तेमें एक दिन एक ही समय भोजन कर एक वक्तका उपवास रखे। इसके बाद उन्होंने अत्यंत भावभीने शब्दोंमें कहा "मैं स्वयं यह प्रण लेता हूँ कि आजसे आरंभ कर हर सोमवार को एकभुक्त होनेका व्रत रखूँगा।" भाषण समाप्त करते हुए उन्होंने नारा लगाया "जय जवान, जय किसान"।
उसी पल हमारे घर के सभी सदस्योंने सोमवारको एक भोजन त्यागने का संकल्प लिया। थोडी देर बाद घर से बाहर निकलकर औरों के साथ बातें होने लगीं तो पता चला कि कई सारे घरोंमें यह प्रण लिया गया है। कारण यह था कि उनके भाषण की प्रामाणिकता सबको छू गई थी और लोग इस युद्धके इतिहासमें अपना हाथ बँटानेको लालायित हो गये थे। सच पूछें तो सप्ताह में एक उपवास भारतियोंके लिये कोई नई बात नही है, लेकिन उस आवाहन के कारण लोगोंका मन सीमापर लडने वालोंके साथ जुड गया और उन्हें लगा कि जवानोंके साथ हम भी अपना गिलहरी-सा छोटा सामर्थ्य तो लगा ही रहे हैं। युद्ध जीतने के लिये यह मानसिकता बडी ही आवश्यक वस्तु होती है।
दूसरे दिन क्या कॉलेज और क्या बाजार -- हर जगह शास्त्रीजी के प्रसंग ही एक दूसरेको बताये जा रहे थे। एक प्रसंग यह भी था कि कई वर्ष पहले जब वे रेल मंत्री थे (1956 में) तब तमिलनाडुमें हुई एक रेल-दुर्घटनामें करीब डेढसौ व्यक्तियोंकी मौत हुई थी, और इस घटनाकी नैतिक जिम्मेवारी स्वीकारते हुए उन्होंने अपने रेलमंत्रीके पदसे त्यागपत्र दिया था। तब नेहरूजीने कहा था कि दुर्घटना के जिम्मेवार शास्त्रीजी नही हैं फिर भी देशके सामने एक नैतिक मापदण्ड प्रस्तुत होनेके उद्देश्यसे शास्त्रीजी त्यागपत्र दे रहे हैं और वे भी त्यागपत्रको इसी कारण स्वीकार कर रहे हैं। मुझे यह भी याद आता है कि कई वर्षों पश्चात् एक ऐसी ही बडी रेल दुर्घटना में कई व्यक्तियोंकी मृत्यु हुई तो तत्कालीन रेलमंत्रीने रहा कि मुझे त्यागपत्र देनेकी कोई आवश्यकता नही, यह तो व्यवस्था कि भूलचूक है -- Systemic Failure । तब मेरे पिताजी ने तिलमिलाकर कहा था -- अरे, इन्हें जरा शास्त्रीजी की याद तो दिलाओ, वरना इस देशमें यही प्रवाह रूढ हो जायेगा कि हर दुर्घटनाका ठीकरा व्यवस्था पर टाल दिया जायगा और सुधार का कोई प्रयास नही होगा । आजभी जब कोई गडबडी होती है, तो हम इसे व्यवस्थाकी कमजोरी बताकर स्वीकार कर लेते हैं लेकिन शास्त्रीजी ऐसे न थे।
उनकी एक और कहानी सुनने में आई कि बचपनमें कैसे एक समय नाव से नदी पार करनेके लिये पैसे न होनेपर उन्होंने किसी के सामने हाथ फैलाकर उधार लेने की अपेक्षा तैरकर नदी पार की और इस तरह अपनी खुद्दारी का परिचय दिया। यही खुद्दारी हमलोगोंने उस दिन उनके भाषणमें भी साफ सुनी थी जब उन्होंने पाकिस्तानको चेतावनी दी । यही खुद्दारी तब भी दिखी जब उनकी मृत्यूके पश्चात् पता चला कि अन्य कई लोगोंकी तरह उन्होंने काला धन नही बटोरा था।
एक घटना यह भी सुननेको मिली कि 1930 में जब उन्हें ढाई वर्ष के लिये जेलकी सजा हुई तब उस समयका उपयोग करते हुए कई पुस्तकें पढ डालीं। एक पुस्तक प्रसिद्ध वैज्ञानिक मेरी क्यूरी का चरित्र था। मेरी की लगन और कामके प्रति श्रद्धासे वे इतने अभिभूत हो गये कि इस पुस्तक का हिंदी भाषांतर कर डाला । मेरी कई वर्षोंसे इच्छा रही है कि उस हिन्ही अनुवादको पढूँ और जानूँ मेरी के चरित्रके किस पहलूने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया और अपने भाषांतरमें उस पहलूको किस तरह उजागर किया है।
उन्होंने जो जय जवान, जय किसान का नारा दिया था उसके पीछे भी एक भावनिक संबंध था। 1964 में जब पंडित नेहरू की मृत्यू पश्चात् वे प्रधानमंत्री बने तब देशमें अकाल का माहौल था और अनाज की कमी थी। इसीलिये कृषीनितीको सही दिशा देना आवश्यक धा। उनके दिये हुए नारे के कारण कृषक व कृषिका महत्व लोगोंके दिल-दिमागमें पैठ गया। आज भी उनके इस नारेको सही मानोंमें अपनाकर अमल करें तो देश में अनाजका अभाव नही रहेगा।
उनके उस दिनके भाषणकी खुद्दारीने तथा जिस बहादुरीसे भारतीय जवानोंने पाकिस्तानको मुँहतोड जबाब देकर संधि-प्रस्ताव के लिये मजबूर कर दिया, उस बहादुरीने हर भारतीयका सर गर्व से उँचा कर दिया और चीन-युद्धकी हारसे आई ग्लानीको एक प्रकारसे कम कर दिया। उसी युद्धके अमर शहीद हवलदार अब्दुल हमीद (मृत्युदिवस 10 सितम्बर 1965) को तत्काल मरणोपरान्त परमवीर-चक्रकी घोषणा कर शास्त्रीजीने दिखा दिया कि जवानोंका मनोबल बढानेमें सरकार पीछे नही हटेगी । उन दिनों अखबारमें छपी हवलदार अब्दुल हमीदकी फोटो (कई गोलियँ खाकर जखमी अवस्थामें लेटे हुए) कई वर्षोंतक मेरी किताबोंमें रखी थी -- शायद अब भी कहीं हो । इसी दौरमें चीनने फिरसे एक दुष्ट रणनीति के तहत भारतपर कुछ आरोप लगाये थे जिसके लिये शास्त्रीजीका उत्तर था कि यदि इस बार चीन आक्रमण करेगा तो उसका भी दृढतीसे मुकाबला किया जायगा। इस बात पर किसीने कह दिया कि अरे, ये तो गुदडी के लाल निकले -- बेशकीमती। सबके मनमें एक जोशसा भर गया था कि युद्ध नही हारेंगे -- और वाकई एक ओर चीनने चुप्पी साध ली तो दूसरी ओर एक मजबूत स्थितिमें पहुँचकर हमारे जवानोंने पाकिस्तानको संधिके लिये मजबूर कर दिया। जय जवान का नारा यथार्थ सिद्ध हुआ । बाइस दिनका वह युद्ध तेइस सितम्बर को रुक गया।
फिर संधि-वार्ताकी बारी आई। जनवरीमें प्रधानमंत्री रशियाको रवाना हुए जहाँ वार्ता होनी थी । एक शाम वार्ता संपन्न होनेकी खबर आई, दस्तावेजोंपर दोनों देशोंने अपनी मुहर लगाई। और तत्काल दूसरे दिन शास्त्रीजीकी मृत्युकी खबर आई । पूरा देश शोकसागरमें डूब गया । हरेकके दिलमें एक ही भावना थी -- अरे, यह कैसे हो गया जो इस पडाव पर हरगिज नही होना चाहिये था। उनके शवके साथ खुद पाकिस्तानी प्रंसिडेण्ट जनरल अयूब खान और रशिया के प्रधानमंत्री कोसिजिन भारत आये।
इस दुखद घटना का वर्णन हिंदी के प्रसिद्ध कवि काका हाथरसी ने इस प्रकार किया --
कहँ काका कविराय, न देखा ऐसा बन्दा
दौ दौ देसन के प्रधान जाको दे कान्धा ।।
दो अक्तूबर को गांधी जयन्तीके दिनही शास्त्रीजीका भी जनमदिन आता रहा है और हर वर्ष भारत माँके इन दो दो सपूतोंको याद कर हम श्रद्धांजली देते हैं।
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