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शनिवार, 30 मार्च 2013

हाथी की मातृभाषा -- कभी पढी हुई कहानियाँ -1


हाथी की मातृभाषा -- कभी पढी हुई कहानियाँ -1

करीब ५० वर्ष पहले -- पराग या मनमोहन या चंदामामा या बालक मासिकसे पढी थी

  शहरमें जगह जगह नई पर्चियाँ चिपकाई गई थीं और पढ-पढकर लोग व्याकुल हो रहे थे। बात ही कुछ ऐसी थी। चार महीने पहले एक सर्कस यहाँ आई थी और उसने आबालवृद्ध सबको अपने अद्भुत कारनामोंसे मोह लिया था। खासकर सर्कस का मुख्य आकर्षण कहलानेवाला हाथी। उसका फूटबॉल खेलना, सूँढ उठाकर सलाम करना, बच्चे दिखें तो उनपर फूल फेंकना और सूँढ उठाकर हिनहिनाना मानों कह रहा हो कि देखो, कैसा निशाना है, बॅण्डकी धुनपर थिरकना आदि आदि कितनी ही बातें थीं। दो सप्ताह पहले तक उसके  इन्हीं कारनामोंके फोटोके साथ पर्चियाँ लगती थीं। फिर एक दिन अचानक क्या हुआ कि उस दिनसे हाथीके खेल बंद हो गये। पहले दिन तो खुद मालिकने सर्कसमें आकर लोगोंसे माफी माँगते हुए कहा था कि हाथीका खेल नही हो सकता, जो चाहे, अपने पैसे वापस माँग ले -- और कुछेकने माँग भी लिये थे। लेकिन लोग जानना चाहते थे कि उनके दुलारे हाथीके खेल क्यों नही हो सकते? धीरे धीरे बात फैली कि हाथी पागल हो गया है और किसीके काबूमें नही आ रहा, उसे मोटी जंजीरोंमें बाँधकर रखना पडता है -- फिर चतुर सर्कस मालिकने जंजीरोंमें जकडे हाथीको देखनेपर भी टिकट लगाकर थोडी कमाई तो कर ही ली। लोगोंने इसे भी स्वीकार किया -- आखिर हाथीके खानेका खर्च तो निकल रहा है, बेचारेकी खुदकी कमाईसे।

  लेकिन आजकी पर्चीने सबको दुखमें डाल दिया था,  आज मालिकने घोषणा की थी कि निरुपाय होकर उसे हाथीको  गोलीसे मार डालनेका निर्णय लेना पड रहा था। हाथीको देखने आये विशेष डॉक्टरोंने और वन अधिकारियोंने प्रमाणपत्र दे दिया था कि इसके अलावा कोई चारा नही। इसलिये रविवारको उसी सर्कसके मैदानमें हाथीको गोली मारी जायगी। कोई टिकट नही, फिर भी जो दर्शक इस दृश्यको बरदाश्त कर सकेगे, वही आयें ।

  रविवारको सर्कसका पंडाल खचाखच भरा हुआ था। पास-पडोसके गाँवोंसे भी सैंकडों लोग आये थे। ठीक तीन बजे हाथीको पंडाल में लाया गया और चार बजे उसपर गोलियाँ चलनेवाली थीं। हाथीकी चिंघाडसे लोगोंके दिल दहल रहे थे, लेकिन पंडालसे बाहर कोई नही जानेवाला था। मोटी साँकलियोंमें बंधा हाथी छूटनेके लिये जोर लगा रहा था -- कई दिनोंसे -- जिससे उसके पैर लहूलुहान हो रहे थे। उसके क्रोधका कोई ठिकाना नही था। 

घडी टिक-टिक करती हुई समयको विदा कर रही थी। लोगोंकी अकुलाहट और दुख के साथ साथ हाथीकी भयानक चिंघाडोंसे डर भी बढ रहा था। अचानक भीडको चीरता हुआ एक दुबला पतला व्यक्ति सामने आया। अधेड उम्र, साधारण कपडे, वह तेजीसे रिंगकी तरफ बढा और लोगोंके देखते देखते रिंगमें घुस गया। मालिकसे उसने निवेदन किया -- मुझे एक मौका दो -- मैं हाथीको शांत कर सकता हूँ। एक पलको सन्नाटा छा गया। रिंगमें बंदूकधारियोंके साथ डॉक्टर भी थे -- उन्होंने गरदन हिलाकर अविश्वास जताया। हाथी इतना क्रोधित है और वह भी इतने दिनोंसे -- अब इसका कुछ नही हो सकता। लेकिन भीडका फैसला अलग था। यदि यह खुद कह रहा है कि वह हाथीको काबू कर सकता है तो क्यों न एक कोशिश की जाय? 

उस व्यक्तिने सबको रिंगसे बाहर जानेका और भीडसे शांति बनाये रखनेका अनुरोध किया। उसने आगे बढकर हाथीके तीन पाँवोंसे बेडियाँ भी निकाल दीं। इस बीच वह ऊँची आवाजमें एक अबूझ भाषामें हाथीसे लगातार बातें कर रहा था। हाथीका चिंघाडना चल रहा था। पाँच मिनट - दस मिनट, और अचानक हाथीने अपनी सूँढ उसके कंधे पर रख दी। हाथीकी आँखोंसे अविरल धार बह चली। झुककर उस व्यक्तिने हाथीकी अन्तिम बेडी भी खोल दी। अगले कई मिनट दोनों एक-दूसरेको अपने प्यारका विश्वास दिला रहे थे। लोगोंने एक नया ही भावभीना खेल आज देखा था

सब शांत हो गया तो लोगोंने जानना चाहा कि राज क्या है। उस व्यक्तिने बताया कि पर्चोंपर हाथीके चित्रसे वह जान गया धा कि यह हाथी उन्हीं जंगलोंका है जो उस व्यक्तिका भी देश है। सर्कसमें आनेसे पहले हाथीने वही भाषा सुनी धी -- सर्कसके कई वर्षोंमें उसे अपनी मातृभाषा सुनने नही मिली थी -- लेकिन अत्यंत क्रोध, उन्माद और व्याकुलताकी दशामें भी उसी भाषामें बातें सुनकर हाथीको लगा कि वह अपनोंके बीच आ गया है और इस प्रकार वह शांत हो गया।

कहानी तो यहाँ समाप्त हो गई और मुझे भी आज अचानक याद आ गई। बीचके सारे वर्षोंमें भारतीय भाषाओंकी दशा बिगडते देखी है -- बाजार की व्यवस्थामें देशी भाषाएँ शून्यवत कर लोग अपने अंगरेजीके ज्ञानपर इठलाते देखे हैं। आज स्मृतिके गूढ अंतरालसे निकलकर यह कहानी मनःचक्षूके सामने आई और मातृभाषाका एक नया अर्थ समझा गई। 
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