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शनिवार, 3 सितंबर 2011

कठिन नही है डगर अभिभावककी 1 and 2 -- लर्न मोअर जाने 2011 फेब्रु 2011

कठिण नही है डगर अभिभावक की
-लीना मेहेंदळे
हर घर में एक ऐसा समय आता हैं जब हम अभिभावक की भूमिका में आ जाते हैं और सोच में पड जाते हैं की बच्चोका व्यक्तीत्व निखारने के लिए क्या करें।
कई सौं वर्ष पहले महर्षी चरक में चरक में लिखा है की व्यक्ती बनने में चार बातों का योगदान हैं। पहली उसके अणुवंशिक गुण जो वह अपने पूर्वजों से लेकर आता हैं। आज की भाषा में कहे तो उसके जिन्स। दुसरी बात है उसकी परिवेश, माता पिता, परिवार और उसके समाज से मिलने वाले संस्कार। तीसरा वह ज्ञान जो उसने पाठशाला में पुस्तकों और गुरु से सिखा। चौथी है घुमक्कडी - उसमें घुम घुम कर जो देखा और सिखा। हर एक बात का योगदान पच्चीस प्रतिशत हैं।
अभिभावक की सोच या अनुकुलता सही हैं। मित्रमंडळी में यह चर्चा हमेशा होती हैं की, बच्ची या बच्चे का लालन पालन कैसे करे, उसकी पढाई को कैसे सवारे और व्हँल्यु सिस्टम में क्या डालें। इस संबंध में मेरे आजमाए कुछ खास खास गुर हैं। यह गुर आजमाने में मेरी नौकरी और विचारधारा तथा मेरे अपने जिवन मुल्यौ का प्रभाव रहा हैं, फिर भी मुझे लगता है की यह गुर हर परिस्थिती में अपनाएँ जा सकते हैं।
मेरी नौकरी की वजह से बच्चों के लिए बहुत अधिक समय निकालना मेरे लिए संभव नही था। कलेक्टर की पोस्ट पर तैनात अधिकारी के लिए समय का हिसाब करना मुश्कील ही होता हैं। उसे सुभह शाम रात कीसी भी समय टूर और अन्य कामों के लिए जाना पड सकता हैं। इसिलिए नियमित समय या विस्तृत प्लँनिंग संभव नही था। मुझे कुछ ऐसे तरिके ढुडने पडे जिसमें कम से कम परिश्रम और समय में ही अधिक फल मिल सकें। इसके लिए चाहीए निरंतरता सें निभाए जाने वाले कुछ खास खास नियम। लेकीन वे भी कम हो तो निभाना संभव हैं। इन्हे मैने क्रिटिकल प्लँनिंग नाम दिया हैं।
इसिसे मैने बच्चो को यही सिखाया की जिवन के अधिकतर काम बहोत थोडे से प्लाँनिंग के सहारे निपटने चाहिएँ। दस प्रतिशत काम क्रिटिकल प्लाँनिंग के साथ हो और उन मुद्दोंपर कोईभी कमी नही रखनी चाहीए। बाकी कामों के लिए वही मनःपूत समाचारेत् वाला नियम चलेगा।
एसे क्रिटिकल प्लाँनिंग वाले कामों में सर्वप्रमुख बात थी हर रोज की नियमित एकत्रित पढाई। इसमें गणित के पहाडे, स्कुली पुस्तकों की कविताएँ, कुछ संस्कृत के श्लोक, बीजगणित के नियम, ज्यामिती और व्याकरन के सुत्र, विज्ञान के सिध्दान्त और व्याख्याए, तथा इतिहास भूगोल के कुछ तथ्य शामिल थे। इनका चयन बच्चों की जरुरत की चयन पर बदलता गया और समय मेरी टूरिंग के अनुरुप। जब में सांगली जिले में कलेक्टर थी और स्कुटर पर बेटे को शीशु वर्ग में छोडने जाती थी तो उन पंधरा मिनिटो में सौं तक की गिनती हिंदी, मराठी व अंग्रजी भाषा में तथा कविताए दोहरा लेती। आज भी वह स्टियरिग व्हिल पर होता है और मै साथ वाली सिट पर और हम एक दुसरे से दुनिया की नई घटना ओंकी बातें करते हैं तो उन दिनों को भी याद करते हैं।
बच्चे बडे होते गये तो अगले पाठ भी अगले पाठ भी पढाई के रुटीन मे शामील होते गये। उनके गणित के पाठ के लिए हमे उनके काँनव्हेंट स्कुल के साथ बेईमानी करनी पडी। स्कुल का आग्रह था की बच्चो को कोई भी विषय मराठी में न पढाया जाए। गणित के पहाडे तो हरगिज नही। अब मराठी और हिंदी में अंकोकी गिनती एक शब्दोंमें होती हैं। जब की अंग्रेजी में दो या तीन शब्दों की। जैसे चौसठ को कहना पडेगा सिक्सटी फोर या पैतीसासे को कहना पडेगा वन हन्ड्रेड अँन्ड थर्टी फाईव्ह। हिंदी में कहेंगे नौ पाचे पैतालीस पर अंग्रेजी में कहना पडेगा नाईन फाईव्हज आर फोर्टी फाईव्ह। अर्थात समय और परिश्रम दोनों का खर्चा अधिक।
सो तय हुवा की पहाडे तो मराठी सें ही याद किये जाएँगे। काँन्वेंट स्कुलों में रोजाना पहाडे निगवाने का रिवाज नही होता हैं। हाँ, लिखवाए जाते हैं जो मन ही मन मराठी में दोहराकर लिखे जा सकते हैं। यदि कभी टिचर ने अकेले को उठाकर पहाडे सुनाने को कहा तो जैसा बन पडे कह देना। हो सकता है थोडी डाँट खानी पडे और फायदा - तो फायदे की बात थी स्पीड - तेजी। गुणा भाग के सवाल मेरे बच्चे फटाफट कर सकते थे क्योकी, लंम्बे लंम्बे शब्दोका समय बच जाता था।
चौथी कक्षा की स्काँलरशीप परिक्षा हो या नँशनल टँलेंट सर्च या बारवीके बाद की आय.आय.टी, या स्नातक के बाद बँकींग परिक्षा हो, यानी जहा कही गणित के गुणा भाग का सामना करना है, वहा वहा पहाडे याद हों व कम शब्दों सहीत याद हों - अर्थात हिंदी में तो बहोत फायदा होता हैं। मेरे बच्चों की देखादेखी उनसे सलाह लेने वाले कई बच्चों ने यह तरिका अपनाया।
गणित सिखाने के लिए कई अन्य गुण उपयोगी हैं। बचपन में माँ ने मुझे पहाडे याद करवाने का अलग तरिका अपनाया था। छोटे छोटे कामों के बिच पुछ लेती - चार साते? और बिना चार एके चार, चार दुने आठ किए सिधे तात्काल उत्तर देना पडता - अठ्ठाईस। ईसमे बडा मजा आता था खासकर जब मैं देखती की परीक्षा में कितनी तेजी से मैंने पेपर खतम किया हैं।
मैंने बच्चों के लिए दिवार पर नौ खानोंवाले कुछ चकोर चिपका दिए थे। उनमें तात्काल गुणा के लिए आँकडे लिख दिए थे। दस के पहाडे तक सारे गुणाकार ऐसे सात चौकरो में आ जाते हैं।


३x६     ८x९     ९x४
५x२     ७x३     ८x७
२x९     ४x३     ५x६


हर दिन एसे एक चकोर के नौ सवाल करते चलो तो बच्चे और अभिभावक भी आसानी से माहीर हो जाते हैं। हाल ही में मेरे बहन के लडके इंजिनिअरिंग खतम करने के बाद जीआरई और टाँफेल की मे गणित की तैयारी के लिए यही तरिका अपनाया। मुझसे बोला - मौसी, तु बचपन में मुझसे यह याद करवाना चाहती थी, तब मै टाल गया था, पर अब कर रहा हूँ, अब तुम्हारे सारे गुर भी बतादो।
बचपन में मैंने क्या क्या रटा था। उसमें - पव्वे का पहाडी भी था - एक पव्वा पव्वा, दो पव्वे आधा, तीन पव्वा पौना, चार पव्वा एक। यू सौ पव्वा पच्चीस तक इसी तरह आधे का, पौने का, देढ का, और अढाई का भी। मैने भी ये सारे बच्चों को चालीस तक पढवा दिए थे। साथ ही पचीस तक वर्गफल और दस तक घनफल भी पढवा दिए थे। अर्थात दो दुनी चार, तीन तीए नौ, चार चोके सोला, से लेकर पचीस पचीसे छःसौ पचीस। और एक एके एक एके एक, दो दुनी चार दुनी आठ, तीन तीए नौ तीए सताइस से लेकर दस दसे सौ दसे हजार तक। यह सिरीज भी याद करवाई थी -  एक, तीन, छः, दस, पंद्रह, एक्कीस, अठ्ठाइस, छत्तीस, पैतालीस, पचपन। यह एक से दस तक के अंको के जोड हैं।
एक से सौ के बीच पचीस अविभीज्य अंक पडते हैं और इनकी पहेचान के कई अनेक फायदे हैं। इसिलीए दो, तीन, पाच, सात, ग्यारह, तेरह, सहत्र, उन्नीस से चलकर तीसरी, नवासी, सतानबे से सारे अविभाज्य अंक की एक कविता लयबध्द बनाकर हम गाते थे। याद रखने के लिए यह कविता लय, ताल, धुन आदि बहोत उपयोगी हैं। इसिलिए हमारे यहाँ श्लोक पाठ, मंत्र पाठ, और छंदोबध्द कविता का इतना महत्व हैं। इसिलिए बच्चों को स्कुली पुस्तकों की कई कविताए याद करवाई थी। यह सब अंग्रेजी करना प्रायः असंभव था। और हिंदी या मराठी में करना सरल।
बस एक गहरी बात बिचमें थी - स्कुल मे काफी स्ट्रीक्टली कहा गया था की, घर पर भी कोई बच्चा किसी भी विषय की पढाई अंग्रेजी के सिवाय कीसी भाषा में नही करेगा। हमारी शाम की चर्चा में हमने बच्चों से अकसर एक मित्र के नाते और उन्हे विश्वास दिलाकर बाँते कि हैं। उन्हे समझाया की नियम क्यो होते हैं, एक नियम बध्द समाज कैसे तेजीसे विकास करता हैं और नियमों का पालन क्यो आवश्यक हैं। साथ ही यह बताया की नियम आदमी के लिए है नाही आदमी नियमोके लिए है। इसिलिए हर नियम के पिछे एक सिध्दांत होता हैं और हमे उस सिध्दांत को परखना हैं। यदि वह समाज की भलाई के लिए है तो, उसके प्रति हमे श्रध्दा रखनी पडेगी, लेकीन उसे कुरेदकर देखो, परखो, आँख मुँदकर मत मानो- चाहे हम माँ बाप की क्यो न कह रहे हो। अर्थात जब यह सिखाना स्कुल की बात को आँख मूँदकर मत मानो तब यह भी सिखाना पडा की हमारी बाँत को भी आँख मूँदकर मत मानो। आगे जब वे बडे हुँये तब यह भी सिखाना पडा की सेना या पुलिस से आँख मूँदकर सिनिअर का आदेश पालन करना क्यो और कितना आवश्यक हैं। तो बात केवल पहाडो और गणित तक नही रही, वह दार्शनिकता पर जा पहुँची।
उन दिनो न जाने कितनी स्कुली कविताएँ और कितनी साथ साथ की गयी पढाई थी। उन्हे आज भी याद करते है तो उल्हास, आनंद व प्रेरणा के झरने बन जाते हैं। जैसे - सुभाषबाबु पर लिखी पँक्तियाँ - अजानबाहू उची करके वे बोले रक्त मुझे देना इसके बदले में भारत की आझादी तुम मुझसे लेना। या अंग्रेजी की टेल मी नाँट इन मोर्नफल नंबर्स लाईफ बट अँन एम्प्टी ड्रिम। या मराठी प्रसिध्द कविता अरे, विश्वकर्मा है श्रम का पुजारी जहाँ जुझते हाँत है। व्याकरण के लिए भी एसे गुर ही अपनाए थे उनकी चर्चा फिर कभी।

आज जब बच्चे अपने कामों में मग्न है, कुछ काल से विदेशवासी भी हैं, तो इस एकत्रित पढाई की यादे हमारे बंधन को मजबूत रखने में सहायक हो रही हैं।
हिमालयन ओऍसिस, सिमला के अंक में भी प्रकाशित
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लेख     कठिन नही है डगर अभिभावक की लर्न मोअर  जाने 2011 फेब्रु 2011
--लीना मेहेंदळे--
सच्चाई का संस्कार एक बहुत बडी बात होती है। जब मनुष्य ने बोलना सीखा तो वह पूरा प्रकटन इस लिये था कि दिल की बात, मन के विचार, जो अनुभूतियों के स्पंदनसे जागृत होते हैं उन्हें दूसरों तक पहुँचाया जाय, उनका संचरण हो। लेकिन धीरे धीरे मनुष्यने जाना कि बोलते बोलते झूठ भी बोला जा सकता है। उसके बाद ज्ञानी, ऋषि और तपास्वियों ने, जाना कि मनुष्यके व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक उत्थान में सत्य की क्या जरुरत है और झूठको क्यों नकारना है। इस प्रकार मानव विकास के इतिहास मे जब पहली बार 'बोलना' एक ज्ञान माध्यम के रुप मे आया तब 'बोलने' का अर्थ था 'सच बोलना' फिर जैसे जैसे सामाजिकता बढी, झूठ भी एक कला के रुप में उभरा। फिर सामाजिक नीति की बात आई तो फिर सच्चाई की दुहाई की आवश्यकता पडी।
    हमारे वेद पुराणों मे जो बार बार सत्य पर जोर दिखता है, वह क्योंकर ? सात घोर नरकों की तरह सात दिव्य लोक भी बताये गये है जिनमें सबसे ऊपर, सबसे श्रेष्ठ है सत्य लोक - जहाँ ईश्र्वर का वास माना गया है।
    एक वैदिक ऋचा है- सत्यं वद, धर्मं चर। यानी सच बोलो और धर्म निभाओ। हमारी प्रार्थना है- असतो मा सत्‌ गमय यानी मुझे असत्य की राह से हटाकर सच्चाई की राह पर ले चलो मांडूक्य उपनिषद कहता है - सत्यमेव जयते नानृतम्‌ यानी सचही जीतेगा झूठ कभी नही और ईशावास्योपनिषद् ने तो एक सुंदर कविता कह दी-
         हिरण्मयेन पात्रेन सत्यस्थापिहितम्‌ मुरवम्‌।
         तत्त्वम्‌ पूषन्‌ अपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।
यानी कि सच का मुहाना एक सोने के ढक्कन से ढका पडा है (लोग उस सोने से ही चौंधिया जाते हैं और सच्चाई को देखने की ललक खो बैठते हैं)। तो हे सूर्य, तुम अपनी तेजस्विता से उस सोनेके परदे को दूर करो ताकि मैं सत्य का दर्शन कर सकूँ।
    महाभारत की कथा ने सत्यका बखान ऐसा किया हैं - कि धर्मराज युधिष्ठिर चूँकि सदा सच बोलते थे, तो उनका रथ जमीन से चार अंगुल ऊपर चलता था। लेकिन जिस दिन युध्द भूमि में उसने यह दिया 'अश्र्वत्थामा हतः नरो ना कुंजरो वा', तो उस एक झूठसे उसने युध्द तो जीत लिया परन्तु उसका रथ भूमिपर वापस गया
    मुझे लगता है कि बच्चों को सत्यधर्म का संस्कार बिलकुल आरंभ से और बडी सजगता से देना पडता है। उन्हें समझाना आवश्यक होता है कि सच का अर्थ है तह तक पहुँचना सत्य एक ही हो सकता है और केंद्र बिंदु में वही रह सकता है झूठ छिछला होता है और हर परत के साथ उखडने लगता है। वह - मनुष्य को ज्ञान, विज्ञान या आविष्कार तक नही पहुँचा सकता। लेकिन अपने रोज के जीवन के उदाहरणों से यह बात बच्चों को कैसे समझाएँ? इसके लिये आवश्यक है बच्चों को विश्र्वास हो कि मातापिता उन्हें झूठ नही बताएँगे सच्चाई बताने में एक साझेदारी का चिन्तन भी होता है। हम किसीसे सच कहते हैं तो अपने ज्ञानभंडार में उसे शामिल कर लेते हैं, उसकी हिस्सेदारी को कबूल कर लेते हैं। बच्चोंको यह लगना चाहिए कि मॉ बाप उन्हे साझेदार मानते हैं इसलिए सच ही बताएंगे। यह सच्चाई और साझेदारी का गणित भी उनके दिमाग में बैठाना पडता है।
    साथही बच्चों से बार बार नही पूछना चाहिये कि तुम झूठ तो नही बोल रहे? माँ बाप या स्कूल में भी अक्सर पूछ लिया जाता है। दूसरी ओर आँखे बंद कर बच्चों पर विश्र्वास कर लेना भी ठीक नही। क्योंकि हो सकता है उन्होंने बाहर किसी दोस्त से झूठ बोलने का रिवाज सीख
लिया हो। ऐसे में बच्चों के सामने जबतक बडों का अपना उदाहरण हो, आदर्श हों, तब तक उन पर संस्कार कैसे बने?

    हमारे बचपन में घर में हम तीन भाई बहन और माँ छुट्टी के समय अक्सर कॅरम, ताश, ल्यूडो, शतरंज आदि खेलते थे। कभी कभी पिताजी भी शामिल हो जाते थे। गर्मी की छुटियों मे आस पडोस और रिश्तेदारी के बच्चे भी जाते इस बहाने हम सबकी एक साथ बैठने की, दुख - सुख बाँटने की कवायत भी पूरी हो जाती झगडना और एक दूसरे को मनाना भी हो जाता। वह भी सहजीवन को बढावा ही देता है लेकिन आपने बच्चों के समय मैंने देख कि सबके अलग अलग रुटीन थे। फिर मैंने एक अभिनव तरीका अपनाया महिने मे कम से कम दो बार और जरूरत पडे तब तब हमने कॉन्फरंसिंग करने का नियम बनाया। सुबह ही जाहिर कर दिया जाता कि आज मैं इसकी जरूरत महसूस कर रहा हूँ या कर रही हूँ। अंदाजन समय भी तय हो जाता। एक घंटा इसके लिये निकालना अनिवार्य कर दिया था इसमें हर सदस्य चार प्रकार की बातें अवश्य करेंगे - पिछली बार के बाद अबतक किस बात ने बहुत खुशी दी, या दुखी किया, घर के कौनसे क्रिटीकल काम पिछड रहे हैं और निकट भविष्य में किन बातों पर अधिक ध्यान देना पडेगा। अक्सर मैं ही अनाऊंसमेंट करती थी यानी थोडासा काम का जिम्मा अधिक, लेकिन यह प्रक्रिया बडी उपयोगी साबित हुई।
    ऐसे मौके पर कई बार खुशी का उदाहरण देते हुए मैं किसीके सत्यवादिता की बात भी कह देती और यह भी कि उस व्यक्तिपर मुझे कितना गर्व महसूस हुआ - भले ही उसका मेरा परिचय हो मुझे याद आता है कि एक दिन हमने इस बात पर कॉन्फरंसिंग की थी कि उस दिन एक लडकी - बच्छेंद्री पाल - एवरेस्ट की चोटी पर चढी थी
    आज टी व्ही के जमाने इस तरह की कॉन्फरंसिंग का नियम बनाकर - आप देखें तो इसके अच्छ फायदे ही मिलेंगे। एक संस्कार यह भी शुरू हो जायगा।
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१५, सुनीति, जगन्नाथ भोंसले मार्ग, मुंबई ४०००३२
कीर्तिका, इसका टाइटल बदल सको तो अच्छा होगा।






























































लेखांक ३

जानो अपनी समृध्दि को 

(राजकीय चिन्तन)