शनिवार, 26 फ़रवरी 2011
आओ बच्चों भाग 1, 2, 3
आओ बच्चों- - - - - (1)
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आओ
बच्चों 1
बसंत
ऋतु आ पहुंचा । दिन बड़े होने
लगे । और यदि सूर्यास्त के
घंटें भर बाद तुम पूरब की ओर
देखो तो आकाश में सबसे खूबसूरत
नक्षत्र मृगशिरा को तुम आसानी
से पहचान सकोगे । थ्द्य;से
अंग्रेजी में ओरायन कहते हैं।
आकाश
के सबसे बड़े तारे हैं व्याध,
अभिजीत,
गुरू,
और शुक्र।
आजकल गुरू भी मृगशिरा नक्षत्र
के पास है । गुरू और व्याध की
आसन सी पहचान यह है कि शाम को
पूरब की ओर सबसे बड़े जो दो
सितारे हैं वही व्याध और गुरू
हैं। देखो चित्र।
मृगशिरा
नक्षत्र आकाश में काफी फैला
हुआ है । थ्द्य;सके
तीन छोटे लेकिन चमकीले सितारे
एक सीधी रेखा में हैं और बड़े
खूबसूरत हैं । उन्हें त्रिकांड
कहते हैं । उनके कारण मृगकों
पहचानना बहुत सरल है । त्रिकांड
के चारों ओर आयताकार चार तारे
है । और नीचे की ओर तीन छोटे
छोटे तारे हैं । त्रिकांड की
बाथ्द्यर्;
ओर व्याध
दाथ्द्यर्;
तथा रोहिणी
नमक दो बडे तारे हैं आरे ये
पांच भी एक सीधी रेखा में हैं
। व्याध से थोडा ढ़द्य;पर
पुनर्वसु नक्षत्र के चार में
से एक चमकीला तारा है । पुनर्वसु,
रोहिणी,
आर्द्रा,
नक्षत्रों
की पहचान बाद में करेंगे ।
मृगशिरा
का अर्थ होता है हिरण का सिर।
भारतीय मिथकों में कहानी है
कि एक दुष्ट राक्षस ने रोहिणी
नामक अप्सरा को तंग करने के
लिये हिरण का रूप लिया और उसे
सताने लगा । थ्द्य;स
पर विष्णु ने एक व्याध या शिकारी
बनकर एक बाण चलाया जो हिरण के
पेट में लगा । यही बाण त्रिकांड
के तीन तारे हैं । इसी
कारण व्याध,
त्रिकांड
और रोहिणी एक लाइन
में हैं । त्रिकांड के नीचे
तीन छोटे तारे हैं जो बाण लगने
से बहने वाली खून की बूंदे हैं
। चार आयताकार तारों के बीच
छोटे छोटे और कई तारे हैं
जो हिरण के शरीर के हैं । लेकिन
उन्हें दूरबीन से ही देखा जा
सकता है ।
लेकिन
ग्रीक मिथकों के अनुसार मृगशिरा
का नाम है ओरायन । माना जाना
है कि ओरायन अपने जमाने का एक
घुरंधर शिकारी था जो अपनी कमर
में हीरों जड़ी चमकीली बेल्ट
बांधता है जिससे उसका खंजर
नीचे लटकता है । त्रिकांड के
तीने तारे हुए बेल्ट और उनसे
नीचे लटकने वाले तीन तारे हुए
खंजर । और जिस तारे को हम व्याध
अर्थात शिकारी कहते हैं,
उसका
ग्रीक मिथकों मे नाम है सिरीयस
जो कि ओरायन का बडा कुत्ता था
। अंग्रेजी पुस्तकों में उसे
केनिस मेजर कहते है । इसके
अलावा एक केनिस मायनर भी है
। यानी ओरायन का छोटा कुत्ता
।
पृथ्वी
के सबसे नजदीक जो तारे हैं वे
क्रमशः सूर्य,
अल्फा
सेटारी और व्याध हैं । इस
लिये भी व्याध तारे का बडा
महत्व है ।
आजकल
मृगशिरा या ओरायन नक्षत्र
सूर्यास्त के बाद से ही पूर्व
दक्षिण क्षितिज में देखा जा
सकता है। धीरे धीरे ऊपर
आकर दूसरे दिन भोर में दक्षिण
पश्चिम दिशा में इसके
एक एक तारे ढलने लगते हैं ।
उनसे दोस्ती बढानी है तो रात
में अलग अलग समय उठकर देखते
चलो कि यह आकाश में कहाँ कहाँ
कैसे भ्रमण करते हैं ।
आजकल
रोहिणी के साथ मंगल ग्रह भी
देखा जा रहा है,
लेकिन
वह हमेशा वहाँ नही होता । एक
महीने के बाद वह रोहिणी से
काफी हट कर अलग हो जायेगा । हर
सप्ताह देखते रहो तो आगे वह
जहाँ कहीं जाये,
तुम पहचान
सकोगे । तो फिर क्यों न अभी से
उससे दोस्ती बना ली जाय ।
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आओ बच्चों -
- - - - (२)
पीछे
हमने मृगशिरा नक्षत्र के विषय
में बात की थी। इस बार देखें
की नक्षत्र,
महीने
दिन इत्यादि की पढ़ाई कैसे हुई।
अंतरिक्ष
में पृथ्वी घूमती है। एक चक्कर
तो वह खुद अपने चारो ओर लगाती
है जिससे दिन-रात
बनते हैं और एक चक्कर सूरज के
चारों ओर लगाती है जिससे वर्ष,
महीने
और मौसम बनते हैं। पृथ्वी के
घूमने को हम यों तो जान नहीं
पाते लेकिन आकाश के नजारे
बदलते रहने से हमें इस भ्रमण
की जानकारी होती है। जाहिर
है कि समय को मापने के हमारे
तरीके इस प्रकार बनाये गये
जिनका आकाश के दृश्यों से सीधा
संबंध है।
हमारे
चारों ओर आकाश इसी प्रकार फैला
हुआ है मानों हम किसी बड़े फूटबॉल
के केंद्र पर बैठे हों जैसे
चित्र में 'म'
यानी
मनुष्य। उपूदप है हमें चारों
ओर दीखने वाले क्षितिज। और
ख है आकाश का वह स्थान जो हमारे
सर के ठीक ऊपर है। पू यानी
पूर्व क्षितिज पर उगने वाला
हर ग्रह या तारा,
चांद या
सूरज,
ख से
गुजरते हुए प अर्थात्
पश्च्िाम क्षितिज पर पहुँच
कर अस्त हो जाता है -
फिर अगले
दिन पू से उगने के लिये। इन
सारी बातों की पढ़ाई का जो विषय
है उसे कहते हैं खगोल शास्त्र।
उसमें से आज एक ही बात जान लो।
जब हमारे पूर्वजों ने,
ऋषि
मुनियों ने और वैज्ञानिकों
ने खगोल शास्त्र की पढ़ाई आरंभ
की तो खगोल यानी आकाश के गोले
को ३६० हिस्सों में बाँट दिया।
क्योंकि एक साल में करीब ३६०दिन
होते हैं (३६५
१/४
दिन होने की बात तो सैकंडो
वर्षों की गिनती और सुधार के
बाद आई)
प्रत्येक
हिस्से को एक अंश कहते हैं।
जब हम स्कूल में वृत्त या गोले
के बारे में पढ़ते हैं तो उसे
भी हम ३६० अंशों के रुप में ही
गिनते हैं। फिर आकाश में ३०
अंशो की एक एक राशि बना दी -
इधर पृथ्वी
पर ३० दिनों का एक महीना बना
दिया। याद रखना कि आकाश में
सूरज जो घूमता हुआ दीखता है,
वह एक
महीने में ३० अंश अर्थात्
एक राशी को पार कर रहा होता
है। और सूर्य के ठीक सामने जो
राशी पड़ती है,
उसी के
नक्षत्रों से उस महीने का नाम
पड़ जाका है। जैसे आजकल सूर्य
के ठीक सामने मृगशिरा नक्षत्र
पड़ रहा है तो आजकल का महीना भी
मार्गशीर्ष के नाम से जाना
जाता है।
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बच्चों -
- - - - (३)
आकाश
के कुछ सितारे पूर्व क्षितिज
पर उगते हैं और ख अर्थात्
हमारे सिर के ठीक ऊपर से गुजरते
हुए पश्चिम क्षितिज पर अस्त
हो जाते हैं,
जैसे
सूरज। लेकिन सभी सितारे ठीक
पूर्व क्षितिज पर नही उगते।
कोई कोई तो बिल्कुल उत्तरी
क्षितिज के पास उगते हैं -
जैसे
ध्रुवतारा। वह तो लगभग उत्तरी
क्षितिज पर ही है,
तो
हमें दिखेगा मानों वह घूमता
ही नहीं है। उसका नाम भी इसी
लिये ध्रुव है,
यानी
अपनी जगह से न हटने वाला। जो
सितारे उत्तरी या दक्षिणी
क्षितिज के पास होंगे उनके
रातभर के घूमने का वृत्ताकार
रास्ता भी छोटा ही होगा।
इसलिये
शुरू में खगोल शास्त्रियों
ने उन सितारों पर ध्यान दिया
जो पूरब क्षितिज,
ख और
पश्च्िाम क्षितिज की राह से
चलते हैं। ऐसे कुछ सितारों
के समूह से कुछ काल्पनिक आकार
बना लिये और उन्हें कुछ नाम
दे दिये। इस प्रकार से सत्ताईस
नक्षत्र बने।
यदि
उन्होंने ३० नक्षत्र बना लिये
होते तो हिसाब बड़ा सरल-सीधा
हो जाता। लेकिन चाँद ने अपनी
टाँग अड़ा दी। नक्षत्रों को
क्या सूर्य प्रकाश में देखा
जा सकता है?
उन्हें
तो चाँद के साथ रात में ही देखा
और समझा जा सकता है। और जनाब
चाँद आकाश का चक्कर करीब २७
दिन में पूरा करते हैं अर्थात्
एक नक्षत्र के लिये एक दिन।
सूरज की गिनती लगाओ तो महीने
के ३० दिन होंगे और चाँद की
गिनती से महीने के २७ दिन होंगे।
इसका मेल अंग्रेजी कैलेंडरों
में नहीं बैठाया जाता है।
उन्होंने तय किया कि चाँद को
गिनो ही नहीं। लेकिन हमारे
पंचांगो में इसका तालमेल
बैठाया जाता है। वह हिसाब बड़ा
टेढ़ा है लेकिन दिलचस्प भी।
पर उसे हम तो छोड़ ही देंगे।
सत्ताईस
नक्षत्र और बारह महीने अर्थात्
करीब दो, सवा
दो नक्षत्रों से एक महीना गिना
जाता है। सत्ताईस नक्षत्र
यों हैं -
अश्विनी,
भरणी,
कृत्तिका,
रोहिणी,
मृगशिरा,
आर्द्रा,
पुनर्वसु,
पुष्य,
आश्लेषा,
मघा,
पूर्वाफाल्गुनी,
उत्तराफाल्गुनी,
हस्त,
चित्रा,
स्वाति,
विशाखा,
अनुराधा,
ज्येष्ठा,
मूल,
पूर्वाषाढ़ा,
उत्तराषाढ़ा,
श्रवण,
धनिष्ठा,
शततारका,
पूर्वाभाद्रपदा,
उत्तराभाद्रपदा,
रेवती।
इनसे बनने वाले महिने हुए -
आश्विन,
कार्तिक,
मार्गशीर्ष,
पौष,
माघ,
फाल्गुन,
चैत्र,
वैशाख,
ज्येष्ठ,
आषाढ़,
श्रावण,
भाद्रपद।
इस नामकरण के तरीके से तुम
जान गये होगे कि नक्षत्रों
को स्त्रियाँ माना गया है
और महीनों को उनकी संतान।
संस्कृत में माता या पिता के
नाम से संतान का नाम बनाने की
प्रयुक्ति तुमने सीखी होगी
- जैसे
- मनु
की संतान मानव और भगीरथ की
पुत्री भगीरथी या शिव को पूजने
वाले शैव। उसी प्रकार अश्विनी
से आश्विन और फाल्गुनी से
फाल्गुन। या चित्रा से चैत्र
और विशाखा से वैशाख। हे भगवान्,
यह
खगोलशास्त्र में भाषाशास्त्र
कहाँ से आ गया?
लेकिन
सीख लेने में हर्ज ही क्या है?
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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011
ढपोर शंख -- full
ढपोर शंख
एका लहानशा गांवात एक मुलगी रहात होती. तिच नांव सुखिया. तिला एक धाकटा भाऊ दीपू व त्याहून धाकटी बहीण मिनती पण होती. पण ती दोघं सुखियापेक्षा खूप लहान होती.
मिनती लहान असतानाच या मुलांचे आईवडील वारले. दीपू आणि मिनतीला सांभाळण्याची जबाबदारी सुखियावर येऊन पडली.
त्यांच्याकडे होत एक छोटस घर, थोडी शेती, आणि अंगणात केळी - पपईची झाड ! त्यावरच सुखिया कसबस भागवत होती. ती जंगलातून कांही लाकूडफाटा पण घेऊन यायची, त्यातच तिचा खूप वेळ जायचा. शिवाय नदीवरुन पाणी आणाव लागत असे. एकूण त्यांच जीवन कष्टाचच होत.
एकदा दीपू आणि मिनती तिला म्हणाले - ताई, तू नदीवर पाणी आणायला जातेस ना! मग पलीकडच्या तीरावर कां जात नाहीस? तिकडे मारुतीच मंदीर आहे. आपल्या गांवातले लोक म्हणतात - हा मारुतीराया लोकांचे कष्ट संपवतो. तू पण त्याची प्रार्थना केलीस तर तो तुला नक्कीच कांहीतरी देईल. कारण तुझा स्वभाव कित्ती चांगला आहे.
दुस-या दिवशी सुखिया पाणी आणायला नदीवर गेली - तर तसच नावेत बसून पलीकडच्या तीरावर गेली. मारुतीच्या मंदीरात जाण्यासाठी तिने थोडी फुल पण गोळा केला होती. मंदीरात जाऊन तिने नमस्कार केला, फुल वाहिली आणि म्हणाली - मारुतीराया, आम्ही तिघ लहान मुल आहोत. कष्टाच पण सचोटीच आणि इमानदारीच जीवन जगतो. मेहनत करण्यांत कसूर करत नाही म्हणून तू आम्हाला कांहीतरी मदत कर.
अशी प्रार्थना करुन सुखियाने डोळे उघडले तर तिला मारुतीच्या पायाजवळ एक छोटा, चमकदार शंख दिसला आणि गाभा-यातून आवाज आला - मुली, हा शंख घे. रोज सकाळी स्नान करुन झाल्यावर याची प्रार्थना कर - म्हणजे तो तुला कांही तरी देईल. पण लोभ करु नका. समाधानाने रहा.
सुखियाने शंख उचलला आणि आनंदाने घरी आली. तेव्हापासून त्यांचा नियम ठरुन गेला - रोज सकाळी स्नान करुन तिघ भावंड शंखासमोर येऊन प्रार्थना करीत - हे शंख महाराज, आमची थोडी मदत करा. शंखाच्या पोकळीतून आवाज येई - तथास्तु. मग थोडया वेळानंतर त्यांना शंखाच्या जवळपास कांहीतरी ठेवलेल दिसायच - कधी धान्य, कधी लाकडं, कधी थोडे पैसे तर कधी कपडे आणि कधी पुस्तक. त्यामुळे सुखियाला खूप सहारा मिळाला. आता त्यांना उपाशी पोटी झोपाव लागत नसे. ते मन लावून अभ्यास करु लागले. जास्त मेहनत पण करुन लागले.
त्यांचा शेजारी होता मोतीराम. त्याने पाहिले - ही मुलं आता बदललेली वाटतात. जास्त आनंदात असतात. पूर्वी कधीतरी त्यांना उपाशी पोटी झोपाव लागे. तेंव्हा भुकेने कळवळून रडण्याचा आवाज येई. आता तोही बंद झाला आहे. नक्की याच कांहीतरी गुपित आहे. आपण पत्ता लावला पाहिजे.
मग मोतीराम त्यांच्यावर नजर ठेऊ लागला. त्यांच्या घराच्या अवतीभोवती फिरु लागला. सकाळ-संध्याकाळ लक्ष ठेऊ लागला. आणि एक दिवस लपून खिडकीतून पहात असतांना त्याला दिसल की, सुखिया,दीपू आणि मिनती एका छोटया शंखासमोर हात जोडून उभी आहेत. त्यांची प्रार्थना मोतीरामच्या कानावर आली - हे शंख महाराज, आमची थोडी मदत कर. आणि शंखातून आवाज आला - तथास्तु !
च्ओहो, तर अशी गोष्ट आहे.छ मोतीराम म्हणाला. हा शंख तर मला मिळायला हवा होता. माझ्या घरी सुध्दा किती गरीबी आहे. मला पैशांची सतत गरज पडते. हा शंख मीच घेतला पाहिजे.
मग कांय? मोतीरामच्या मनांत चोर शिरला. त्याच दिवशी त्याने संधी साधून तो शंख पळवला |
आता मोतीराम आणि त्याची बायको दिवसातून सात-आठ वेळा शंखासमोर जाऊन उभे रहात आणि म्हणत - हे शंख महाराज, आमची मदत करा. एकदा शंख म्हणायचा - तथास्तु आणि एखादी छोटी वस्तु त्यांना द्यायचा पण एरवी शंख गप्प रहायचा. त्यामुळे मोतीराम आणि त्याची बायको चिडीला येत. तिथेच उभे राहून ते शंखाला नांव ठेवत की हा आपल्याला एकदाच कांय ते देतो - आणि ते सुध्दा किती छोटस.
इकडे सुखिया, दीपू आणि मिनती गोंधळून गेले. आपला शंख कुठे गेला? मोतीरामने शंख उचलला असेल अशी शंका सुध्दा त्यांना आली नाही. त्यांचे थोडे दिवस बरे गेले आणि मग पुन्हा कष्टाचे दिवस सुरु झाले. एक दिवस मिनतीला समजल की, त्यांचा शंख मोतीरामकडे आहे. पण कांय करणार? ते मोतीराम बरोबर भांडू शकत नव्हते. मग मिनती सुखियाला म्हणाली - ताई, तू आपली पुन: मारुती देवाकडे जा आणि सांग की आमचा शंख मोतीरामने पळवला.
मग ते तिघेही नदी पलीकडे गेले. मारुतीच्या मंदीरात जाऊन प्रार्थना केली - हे मारुतीराया, तू आमच्यावर कृपा केलीस अािण आम्हाला शंख दिलास - पण तो मोतीरामने चोरला. आम्ही पडलो लहान. मग मोतीरामला धडा कसा शिकवणार? आता तूच कांहीतरी उपाय कर. प्रार्थना म्हणून त्यांनी डोळे उघडले तो कांय? मारुतीच्या पायाजवळ एक भला मोठा चमकदार शंख पडलेला होता. गाभा-यातून पुन: आवाज आला - पोरांनो हा शंख घ्या. रोज सकाळी स्नान करुन त्याची प्रार्थना करा - मात्र जास्त कधीच मागू नका. तो देईल तेवढयावरच समाधानी रहा!
तिघ भावंड घरी आली. दुस-या दिवशी स्नान करुन शंखाची प्रार्थना केली हे शंख महाराज, आमची कांही तरी मदत कर. शंखातून आवाज आला - आत्ता करतो. खूप करतो. बोला कांय देऊ? किती देऊ?
सुखियाला खूप आश्चर्य वाटल. पण लगेच आठवल की, मारुतीने कांय सांगितल होत - जास्त मागू नका. ती म्हणाली - आम्हाला वाटीभर तांदूळ दे.
शंख म्हणाला - अरे, हे कांय मागता? वाटीभर कांय मागता? चार वाटया देतो किंवा हव तर हजार वाटया मागा - किंवा दहा हजार कां नाही मागत?
मुलं गप्प बसली. नंतर त्यांनी दिवसभर वाट पाहिली. पण शंखाने त्यांना काहीच दिले नाही.
दुस-या दिवशी मुलांनी पुन: प्रार्थना केली. तर शंखातून आवाज आला - आत्ता देतो, खूप देतो. बोला काय देऊ? पैसे देऊ? किती पैसे देऊ?
सुखिया म्हणाली - दे दहा रुपये. शंख म्हणाला - अरे, दहा रुपये कांय मागता? दोनशे मागा किंवा वीस हजार मागा. आत्ता देतो, खूप देतो. पण त्याही दिवसभरात शंखाने प्रत्यक्ष कांहीच दिले नाही.
मग ही रोजचीच गोष्ट झाली. मुले रोज शंखाची प्रार्थना करीत - कांहीतरी थोडसच मागत. शंख रोज म्हणायचा - आत्ता देतो, खूप देतो. पण प्रत्यक्ष कांहीच देत नसे.
मुलांना आश्चर्य वाटत असे. पण मारुतीने रोज प्रार्थना करायला सांगितले होते म्हणून त्यांनी नियम मोडला नाही.
इकडे मोतीरामच्या मनांत लोभ वाढतच होता. मुलांनी शंख कुठून बरे मिळवला होता? आता त्यांना आणखी कांय मिळाले आहे का? हा विचार करुन त्याने मुलांवर लक्ष ठेवायचे ठरवले. त्याप्रमाणे पुढच्या दिवशी पुन: त्याने मुलांच्या घरांत डोकावले तर त्याला तो मोठा शंख दिसला. मुल त्याच्यासमोर हात जोडून म्हणत होती - हे शंख महाराज, आज आम्हाला थोडीशी मिठाई दे. त्यावर शंख म्हणाला - अरे, थोडी का मागता? खूप मागा. खूप डबे भरुन देतो. आत्ता देतो. खूप देतो.
पुढच बघायला मोतीराम थांबलाच नाही. आपल्या लायकीचा शंख तो हाच. त्याला उत्तम योजना सुचली होती. धावत आपल्या घरी जाऊन त्याने पहिला लहान शंख उचलला आणि लपत छपत सुखियाच्या घराशी येऊन वाट पहात राहीला. मग कधीतरी मुलांच लक्ष नाहीस पाहून तो घरांत शिरला आणि मोठा शंख उचलून त्याच्या जागी लहान शंख ठेऊन तसाच लपतछपत पळून आला.
थोडया वेळाने मुलांनी पाहिले - तो त्यांचा लहान शंख समोर होता. त्यांना आनंद झाला. त्यांनी लगेच प्रार्थना केली - हे शंख महाराज, आम्हाला कांहीतरी मदत कर. आणि थोडया वेळाने त्यांना थोडीशी मिठाई ठेवलेली मिळाली.
इकडे मोतीराम आणि त्याची बायको पण मोठया शंखासमोर हात जोडून उभे राहिले. हे शंख महाराज, आम्हाला पैसे दे. त्यावर शंख म्हणाला - किती देऊ? दहा हजार देऊ?
दोघ म्हणाली - हो, हो, दहा हजार दे - नको पंधरा हजार दे. शंख म्हणाला अरे, पंधरा हजार कांय मागता? पंचवीस मागा किंवा पन्नास हजार मागा. आत्ता देतो, खूप देतो.
पण बराच वेळ झाला तरी कांही मिळेना. मग मोतीराम आणि त्याची बायको पुन: विनवणी करु लागले - हे शंख महाराज, आम्हाला धान्य दे. शंख म्हणाला - हो मागा की. किती देऊ? पाच किलो देऊ?
मोतीराम म्हणाला - दे. पण शंख म्हणाला- अरे, पांच किलो कशाला, तीस किलो देतो, किंवा पन्नास किलो देतो - आत्ता देतो, खूप देतो.
पण काहीच दिले नाही.
दिवसभरात असे सात-आठ वेळा झाले. वैतागून मोतीराम आणि त्याच्या बायकोने विचारले - हे शंखा, तू देत कांहीच नाहीस. फक्त आत्ता देतो, खूप देतो असे म्हणतोस.
शंख म्हणाला - बरोबर आहे. मी आहे ढपोर शंख| मी फक्त खूप बोलतो. देईन देईन म्हणतो पण देत कांहीच नाही. असेन मी ढपोर शंख पण तुमच्या सारख्या चोर, लोभी माणसासाठी मीच ठीक आहे.
मुलांनो, तुम्हाला पण आपल्या अवती-भवती ढपोर शंख दिसतात की नाही? आणि सुखिया सारखी मेहनती मुलं? आणि मोतीराम सारखी माणसं?
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