आओ
बच्चों 1
बसंत
ऋतु आ पहुंचा । दिन बड़े होने
लगे । और यदि सूर्यास्त के
घंटें भर बाद तुम पूरब की ओर
देखो तो आकाश में सबसे खूबसूरत
नक्षत्र मृगशिरा को तुम आसानी
से पहचान सकोगे । थ्द्य;से
अंग्रेजी में ओरायन कहते हैं।
आकाश
के सबसे बड़े तारे हैं व्याध,
अभिजीत,
गुरू,
और शुक्र।
आजकल गुरू भी मृगशिरा नक्षत्र
के पास है । गुरू और व्याध की
आसन सी पहचान यह है कि शाम को
पूरब की ओर सबसे बड़े जो दो
सितारे हैं वही व्याध और गुरू
हैं। देखो चित्र।
मृगशिरा
नक्षत्र आकाश में काफी फैला
हुआ है । थ्द्य;सके
तीन छोटे लेकिन चमकीले सितारे
एक सीधी रेखा में हैं और बड़े
खूबसूरत हैं । उन्हें त्रिकांड
कहते हैं । उनके कारण मृगकों
पहचानना बहुत सरल है । त्रिकांड
के चारों ओर आयताकार चार तारे
है । और नीचे की ओर तीन छोटे
छोटे तारे हैं । त्रिकांड की
बाथ्द्यर्;
ओर व्याध
दाथ्द्यर्;
तथा रोहिणी
नमक दो बडे तारे हैं आरे ये
पांच भी एक सीधी रेखा में हैं
। व्याध से थोडा ढ़द्य;पर
पुनर्वसु नक्षत्र के चार में
से एक चमकीला तारा है । पुनर्वसु,
रोहिणी,
आर्द्रा,
नक्षत्रों
की पहचान बाद में करेंगे ।
मृगशिरा
का अर्थ होता है हिरण का सिर।
भारतीय मिथकों में कहानी है
कि एक दुष्ट राक्षस ने रोहिणी
नामक अप्सरा को तंग करने के
लिये हिरण का रूप लिया और उसे
सताने लगा । थ्द्य;स
पर विष्णु ने एक व्याध या शिकारी
बनकर एक बाण चलाया जो हिरण के
पेट में लगा । यही बाण त्रिकांड
के तीन तारे हैं । इसी
कारण व्याध,
त्रिकांड
और रोहिणी एक लाइन
में हैं । त्रिकांड के नीचे
तीन छोटे तारे हैं जो बाण लगने
से बहने वाली खून की बूंदे हैं
। चार आयताकार तारों के बीच
छोटे छोटे और कई तारे हैं
जो हिरण के शरीर के हैं । लेकिन
उन्हें दूरबीन से ही देखा जा
सकता है ।
लेकिन
ग्रीक मिथकों के अनुसार मृगशिरा
का नाम है ओरायन । माना जाना
है कि ओरायन अपने जमाने का एक
घुरंधर शिकारी था जो अपनी कमर
में हीरों जड़ी चमकीली बेल्ट
बांधता है जिससे उसका खंजर
नीचे लटकता है । त्रिकांड के
तीने तारे हुए बेल्ट और उनसे
नीचे लटकने वाले तीन तारे हुए
खंजर । और जिस तारे को हम व्याध
अर्थात शिकारी कहते हैं,
उसका
ग्रीक मिथकों मे नाम है सिरीयस
जो कि ओरायन का बडा कुत्ता था
। अंग्रेजी पुस्तकों में उसे
केनिस मेजर कहते है । इसके
अलावा एक केनिस मायनर भी है
। यानी ओरायन का छोटा कुत्ता
।
पृथ्वी
के सबसे नजदीक जो तारे हैं वे
क्रमशः सूर्य,
अल्फा
सेटारी और व्याध हैं । इस
लिये भी व्याध तारे का बडा
महत्व है ।
आजकल
मृगशिरा या ओरायन नक्षत्र
सूर्यास्त के बाद से ही पूर्व
दक्षिण क्षितिज में देखा जा
सकता है। धीरे धीरे ऊपर
आकर दूसरे दिन भोर में दक्षिण
पश्चिम दिशा में इसके
एक एक तारे ढलने लगते हैं ।
उनसे दोस्ती बढानी है तो रात
में अलग अलग समय उठकर देखते
चलो कि यह आकाश में कहाँ कहाँ
कैसे भ्रमण करते हैं ।
आजकल
रोहिणी के साथ मंगल ग्रह भी
देखा जा रहा है,
लेकिन
वह हमेशा वहाँ नही होता । एक
महीने के बाद वह रोहिणी से
काफी हट कर अलग हो जायेगा । हर
सप्ताह देखते रहो तो आगे वह
जहाँ कहीं जाये,
तुम पहचान
सकोगे । तो फिर क्यों न अभी से
उससे दोस्ती बना ली जाय ।
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आओ बच्चों -
- - - - (२)
पीछे
हमने मृगशिरा नक्षत्र के विषय
में बात की थी। इस बार देखें
की नक्षत्र,
महीने
दिन इत्यादि की पढ़ाई कैसे हुई।
अंतरिक्ष
में पृथ्वी घूमती है। एक चक्कर
तो वह खुद अपने चारो ओर लगाती
है जिससे दिन-रात
बनते हैं और एक चक्कर सूरज के
चारों ओर लगाती है जिससे वर्ष,
महीने
और मौसम बनते हैं। पृथ्वी के
घूमने को हम यों तो जान नहीं
पाते लेकिन आकाश के नजारे
बदलते रहने से हमें इस भ्रमण
की जानकारी होती है। जाहिर
है कि समय को मापने के हमारे
तरीके इस प्रकार बनाये गये
जिनका आकाश के दृश्यों से सीधा
संबंध है।
हमारे
चारों ओर आकाश इसी प्रकार फैला
हुआ है मानों हम किसी बड़े फूटबॉल
के केंद्र पर बैठे हों जैसे
चित्र में 'म'
यानी
मनुष्य। उपूदप है हमें चारों
ओर दीखने वाले क्षितिज। और
ख है आकाश का वह स्थान जो हमारे
सर के ठीक ऊपर है। पू यानी
पूर्व क्षितिज पर उगने वाला
हर ग्रह या तारा,
चांद या
सूरज,
ख से
गुजरते हुए प अर्थात्
पश्च्िाम क्षितिज पर पहुँच
कर अस्त हो जाता है -
फिर अगले
दिन पू से उगने के लिये। इन
सारी बातों की पढ़ाई का जो विषय
है उसे कहते हैं खगोल शास्त्र।
उसमें से आज एक ही बात जान लो।
जब हमारे पूर्वजों ने,
ऋषि
मुनियों ने और वैज्ञानिकों
ने खगोल शास्त्र की पढ़ाई आरंभ
की तो खगोल यानी आकाश के गोले
को ३६० हिस्सों में बाँट दिया।
क्योंकि एक साल में करीब ३६०दिन
होते हैं (३६५
१/४
दिन होने की बात तो सैकंडो
वर्षों की गिनती और सुधार के
बाद आई)
प्रत्येक
हिस्से को एक अंश कहते हैं।
जब हम स्कूल में वृत्त या गोले
के बारे में पढ़ते हैं तो उसे
भी हम ३६० अंशों के रुप में ही
गिनते हैं। फिर आकाश में ३०
अंशो की एक एक राशि बना दी -
इधर पृथ्वी
पर ३० दिनों का एक महीना बना
दिया। याद रखना कि आकाश में
सूरज जो घूमता हुआ दीखता है,
वह एक
महीने में ३० अंश अर्थात्
एक राशी को पार कर रहा होता
है। और सूर्य के ठीक सामने जो
राशी पड़ती है,
उसी के
नक्षत्रों से उस महीने का नाम
पड़ जाका है। जैसे आजकल सूर्य
के ठीक सामने मृगशिरा नक्षत्र
पड़ रहा है तो आजकल का महीना भी
मार्गशीर्ष के नाम से जाना
जाता है।
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------आओ
बच्चों -
- - - - (३)
आकाश
के कुछ सितारे पूर्व क्षितिज
पर उगते हैं और ख अर्थात्
हमारे सिर के ठीक ऊपर से गुजरते
हुए पश्चिम क्षितिज पर अस्त
हो जाते हैं,
जैसे
सूरज। लेकिन सभी सितारे ठीक
पूर्व क्षितिज पर नही उगते।
कोई कोई तो बिल्कुल उत्तरी
क्षितिज के पास उगते हैं -
जैसे
ध्रुवतारा। वह तो लगभग उत्तरी
क्षितिज पर ही है,
तो
हमें दिखेगा मानों वह घूमता
ही नहीं है। उसका नाम भी इसी
लिये ध्रुव है,
यानी
अपनी जगह से न हटने वाला। जो
सितारे उत्तरी या दक्षिणी
क्षितिज के पास होंगे उनके
रातभर के घूमने का वृत्ताकार
रास्ता भी छोटा ही होगा।
इसलिये
शुरू में खगोल शास्त्रियों
ने उन सितारों पर ध्यान दिया
जो पूरब क्षितिज,
ख और
पश्च्िाम क्षितिज की राह से
चलते हैं। ऐसे कुछ सितारों
के समूह से कुछ काल्पनिक आकार
बना लिये और उन्हें कुछ नाम
दे दिये। इस प्रकार से सत्ताईस
नक्षत्र बने।
यदि
उन्होंने ३० नक्षत्र बना लिये
होते तो हिसाब बड़ा सरल-सीधा
हो जाता। लेकिन चाँद ने अपनी
टाँग अड़ा दी। नक्षत्रों को
क्या सूर्य प्रकाश में देखा
जा सकता है?
उन्हें
तो चाँद के साथ रात में ही देखा
और समझा जा सकता है। और जनाब
चाँद आकाश का चक्कर करीब २७
दिन में पूरा करते हैं अर्थात्
एक नक्षत्र के लिये एक दिन।
सूरज की गिनती लगाओ तो महीने
के ३० दिन होंगे और चाँद की
गिनती से महीने के २७ दिन होंगे।
इसका मेल अंग्रेजी कैलेंडरों
में नहीं बैठाया जाता है।
उन्होंने तय किया कि चाँद को
गिनो ही नहीं। लेकिन हमारे
पंचांगो में इसका तालमेल
बैठाया जाता है। वह हिसाब बड़ा
टेढ़ा है लेकिन दिलचस्प भी।
पर उसे हम तो छोड़ ही देंगे।
सत्ताईस
नक्षत्र और बारह महीने अर्थात्
करीब दो, सवा
दो नक्षत्रों से एक महीना गिना
जाता है। सत्ताईस नक्षत्र
यों हैं -
अश्विनी,
भरणी,
कृत्तिका,
रोहिणी,
मृगशिरा,
आर्द्रा,
पुनर्वसु,
पुष्य,
आश्लेषा,
मघा,
पूर्वाफाल्गुनी,
उत्तराफाल्गुनी,
हस्त,
चित्रा,
स्वाति,
विशाखा,
अनुराधा,
ज्येष्ठा,
मूल,
पूर्वाषाढ़ा,
उत्तराषाढ़ा,
श्रवण,
धनिष्ठा,
शततारका,
पूर्वाभाद्रपदा,
उत्तराभाद्रपदा,
रेवती।
इनसे बनने वाले महिने हुए -
आश्विन,
कार्तिक,
मार्गशीर्ष,
पौष,
माघ,
फाल्गुन,
चैत्र,
वैशाख,
ज्येष्ठ,
आषाढ़,
श्रावण,
भाद्रपद।
इस नामकरण के तरीके से तुम
जान गये होगे कि नक्षत्रों
को स्त्रियाँ माना गया है
और महीनों को उनकी संतान।
संस्कृत में माता या पिता के
नाम से संतान का नाम बनाने की
प्रयुक्ति तुमने सीखी होगी
- जैसे
- मनु
की संतान मानव और भगीरथ की
पुत्री भगीरथी या शिव को पूजने
वाले शैव। उसी प्रकार अश्विनी
से आश्विन और फाल्गुनी से
फाल्गुन। या चित्रा से चैत्र
और विशाखा से वैशाख। हे भगवान्,
यह
खगोलशास्त्र में भाषाशास्त्र
कहाँ से आ गया?
लेकिन
सीख लेने में हर्ज ही क्या है?
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