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शनिवार, 12 जनवरी 2008

अभिभावक की डगर + चित्रप्रत 1 parenting children -- hindi

अभिभावक की डगर -1
published in Himalayan Oasis, Simla issue 1

कठिण नही है डगर अभिभावक की
-लीना मेहेंदळे
हर घर में एक ऐसा समय आता हैं जब हम अभिभावक की भूमिका में आ जाते हैं और सोच में पड जाते हैं की बच्चोका व्यक्तीत्व निखारने के लिए क्या करें।
कई सौं वर्ष पहले महर्षी चरक में चरक में लिखा है की व्यक्ती बनने में चार बातों का योगदान हैं। पहली उसके अणुवंशिक गुण जो वह अपने पूर्वजों से लेकर आता हैं। आज की भाषा में कहे तो उसके जिन्स। दुसरी बात है उसकी परिवेश, माता पिता, परिवार और उसके समाज से मिलने वाले संस्कार। तीसरा वह ज्ञान जो उसने पाठशाला में पुस्तकों और गुरु से सिखा। चौथी है घुमक्कडी - उसमें घुम घुम कर जो देखा और सिखा। हर एक बात का योगदान पच्चीस प्रतिशत हैं।
अभिभावक की सोच या अनुकुलता सही हैं। मित्रमंडळी में यह चर्चा हमेशा होती हैं की, बच्ची या बच्चे का लालन पालन कैसे करे, उसकी पढाई को कैसे सवारे और व्हँल्यु सिस्टम में क्या डालें। इस संबंध में मेरे आजमाए कुछ खास खास गुर हैं। यह गुर आजमाने में मेरी नौकरी और विचारधारा तथा मेरे अपने जिवन मुल्यौ का प्रभाव रहा हैं, फिर भी मुझे लगता है की यह गुर हर परिस्थिती में अपनाएँ जा सकते हैं।
मेरी नौकरी की वजह से बच्चों के लिए बहुत अधिक समय निकालना मेरे लिए संभव नही था। कलेक्टर की पोस्ट पर तैनात अधिकारी के लिए समय का हिसाब करना मुश्कील ही होता हैं। उसे सुभह शाम रात कीसी भी समय टूर और अन्य कामों के लिए जाना पड सकता हैं। इसिलिए नियमित समय या विस्तृत प्लँनिंग संभव नही था। मुझे कुछ ऐसे तरिके ढुडने पडे जिसमें कम से कम परिश्रम और समय में ही अधिक फल मिल सकें। इसके लिए चाहीए निरंतरता सें निभाए जाने वाले कुछ खास खास नियम। लेकीन वे भी कम हो तो निभाना संभव हैं। इन्हे मैने क्रिटिकल प्लँनिंग नाम दिया हैं।
इसिसे मैने बच्चो को यही सिखाया की जिवन के अधिकतर काम बहोत थोडे से प्लाँनिंग के सहारे निपटने चाहिएँ। दस प्रतिशत काम क्रिटिकल प्लाँनिंग के साथ हो और उन मुद्दोंपर कोईभी कमी नही रखनी चाहीए। बाकी कामों के लिए वही मनःपूत समाचारेत् वाला नियम चलेगा।
एसे क्रिटिकल प्लाँनिंग वाले कामों में सर्वप्रमुख बात थी हर रोज की नियमित एकत्रित पढाई। इसमें गणित के पहाडे, स्कुली पुस्तकों की कविताएँ, कुछ संस्कृत के श्लोक, बीजगणित के नियम, ज्यामिती और व्याकरन के सुत्र, विज्ञान के सिध्दान्त और व्याख्याए, तथा इतिहास भूगोल के कुछ तथ्य शामिल थे। इनका चयन बच्चों की जरुरत की चयन पर बदलता गया और समय मेरी टूरिंग के अनुरुप। जब में सांगली जिले में कलेक्टर थी और स्कुटर पर बेटे को शीशु वर्ग में छोडने जाती थी तो उन पंधरा मिनिटो में सौं तक की गिनती हिंदी, मराठी व अंग्रजी भाषा में तथा कविताए दोहरा लेती। आज भी वह स्टियरिग व्हिल पर होता है और मै साथ वाली सिट पर और हम एक दुसरे से दुनिया की नई घटना ओंकी बातें करते हैं तो उन दिनों को भी याद करते हैं।
बच्चे बडे होते गये तो अगले पाठ भी अगले पाठ भी पढाई के रुटीन मे शामील होते गये। उनके गणित के पाठ के लिए हमे उनके काँनव्हेंट स्कुल के साथ बेईमानी करनी पडी। स्कुल का आग्रह था की बच्चो को कोई भी विषय मराठी में न पढाया जाए। गणित के पहाडे तो हरगिज नही। अब मराठी और हिंदी में अंकोकी गिनती एक शब्दोंमें होती हैं। जब की अंग्रेजी में दो या तीन शब्दों की। जैसे चौसठ को कहना पडेगा सिक्सटी फोर या पैतीसासे को कहना पडेगा वन हन्ड्रेड अँन्ड थर्टी फाईव्ह। हिंदी में कहेंगे नौ पाचे पैतालीस पर अंग्रेजी में कहना पडेगा नाईन फाईव्हज आर फोर्टी फाईव्ह। अर्थात समय और परिश्रम दोनों का खर्चा अधिक।
सो तय हुवा की पहाडे तो मराठी सें ही याद किये जाएँगे। काँन्वेंट स्कुलों में रोजाना पहाडे निगवाने का रिवाज नही होता हैं। हाँ, लिखवाए जाते हैं जो मन ही मन मराठी में दोहराकर लिखे जा सकते हैं। यदि कभी टिचर ने अकेले को उठाकर पहाडे सुनाने को कहा तो जैसा बन पडे कह देना। हो सकता है थोडी डाँट खानी पडे और फायदा - तो फायदे की बात थी स्पीड - तेजी। गुणा भाग के सवाल मेरे बच्चे फटाफट कर सकते थे क्योकी, लंम्बे लंम्बे शब्दोका समय बच जाता था।
चौथी कक्षा की स्काँलरशीप परिक्षा हो या नँशनल टँलेंट सर्च या बारवीके बाद की आय.आय.टी, या स्नातक के बाद बँकींग परिक्षा हो, यानी जहा कही गणित के गुणा भाग का सामना करना है, वहा वहा पहाडे याद हों व कम शब्दों सहीत याद हों - अर्थात हिंदी में तो बहोत फायदा होता हैं। मेरे बच्चों की देखादेखी उनसे सलाह लेने वाले कई बच्चों ने यह तरिका अपनाया।
गणित सिखाने के लिए कई अन्य गुण उपयोगी हैं। बचपन में माँ ने मुझे पहाडे याद करवाने का अलग तरिका अपनाया था। छोटे छोटे कामों के बिच पुछ लेती - चार साते? और बिना चार एके चार, चार दुने आठ किए सिधे तात्काल उत्तर देना पडता - अठ्ठाईस। ईसमे बडा मजा आता था खासकर जब मैं देखती की परीक्षा में कितनी तेजी से मैंने पेपर खतम किया हैं।
मैंने बच्चों के लिए दिवार पर नौ खानोंवाले कुछ चकोर चिपका दिए थे। उनमें तात्काल गुणा के लिए आँकडे लिख दिए थे। दस के पहाडे तक सारे गुणाकार ऐसे सात चौकरो में आ जाते हैं।

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२x९     ४x३     ५x६

हर दिन एसे एक चकोर के नौ सवाल करते चलो तो बच्चे और अभिभावक भी आसानी से माहीर हो जाते हैं। हाल ही में मेरे बहन के लडके इंजिनिअरिंग खतम करने के बाद जीआरई और टाँफेल की मे गणित की तैयारी के लिए यही तरिका अपनाया। मुझसे बोला - मौसी, तु बचपन में मुझसे यह याद करवाना चाहती थी, तब मै टाल गया था, पर अब कर रहा हूँ, अब तुम्हारे सारे गुर भी बतादो।
बचपन में मैंने क्या क्या रटा था। उसमें - पव्वे का पहाडी भी था - एक पव्वा पव्वा, दो पव्वे आधा, तीन पव्वा पौना, चार पव्वा एक। यू सौ पव्वा पच्चीस तक इसी तरह आधे का, पौने का, देढ का, और अढाई का भी। मैने भी ये सारे बच्चों को चालीस तक पढवा दिए थे। साथ ही पचीस तक वर्गफल और दस तक घनफल भी पढवा दिए थे। अर्थात दो दुनी चार, तीन तीए नौ, चार चोके सोला, से लेकर पचीस पचीसे छःसौ पचीस। और एक एके एक एके एक, दो दुनी चार दुनी आठ, तीन तीए नौ तीए सताइस से लेकर दस दसे सौ दसे हजार तक। यह सिरीज भी याद करवाई थी -  एक, तीन, छः, दस, पंद्रह, एक्कीस, अठ्ठाइस, छत्तीस, पैतालीस, पचपन। यह एक से दस तक के अंको के जोड हैं।
एक से सौ के बीच पचीस अविभीज्य अंक पडते हैं और इनकी पहेचान के कई अनेक फायदे हैं। इसिलीए दो, तीन, पाच, सात, ग्यारह, तेरह, सहत्र, उन्नीस से चलकर तीसरी, नवासी, सतानबे से सारे अविभाज्य अंक की एक कविता लयबध्द बनाकर हम गाते थे। याद रखने के लिए यह कविता लय, ताल, धुन आदि बहोत उपयोगी हैं। इसिलिए हमारे यहाँ श्लोक पाठ, मंत्र पाठ, और छंदोबध्द कविता का इतना महत्व हैं। इसिलिए बच्चों को स्कुली पुस्तकों की कई कविताए याद करवाई थी। यह सब अंग्रेजी करना प्रायः असंभव था। और हिंदी या मराठी में करना सरल।
बस एक गहरी बात बिचमें थी - स्कुल मे काफी स्ट्रीक्टली कहा गया था की, घर पर भी कोई बच्चा किसी भी विषय की पढाई अंग्रेजी के सिवाय कीसी भाषा में नही करेगा। हमारी शाम की चर्चा में हमने बच्चों से अकसर एक मित्र के नाते और उन्हे विश्वास दिलाकर बाँते कि हैं। उन्हे समझाया की नियम क्यो होते हैं, एक नियम बध्द समाज कैसे तेजीसे विकास करता हैं और नियमों का पालन क्यो आवश्यक हैं। साथ ही यह बताया की नियम आदमी के लिए है नाही आदमी नियमोके लिए है। इसिलिए हर नियम के पिछे एक सिध्दांत होता हैं और हमे उस सिध्दांत को परखना हैं। यदि वह समाज की भलाई के लिए है तो, उसके प्रति हमे श्रध्दा रखनी पडेगी, लेकीन उसे कुरेदकर देखो, परखो, आँख मुँदकर मत मानो- चाहे हम माँ बाप की क्यो न कह रहे हो। अर्थात जब यह सिखाना स्कुल की बात को आँख मूँदकर मत मानो तब यह भी सिखाना पडा की हमारी बाँत को भी आँख मूँदकर मत मानो। आगे जब वे बडे हुँये तब यह भी सिखाना पडा की सेना या पुलिस से आँख मूँदकर सिनिअर का आदेश पालन करना क्यो और कितना आवश्यक हैं। तो बात केवल पहाडो और गणित तक नही रही, वह दार्शनिकता पर जा पहुँची।
उन दिनो न जाने कितनी स्कुली कविताएँ और कितनी साथ साथ की गयी पढाई थी। उन्हे आज भी याद करते है तो उल्हास, आनंद व प्रेरणा के झरने बन जाते हैं। जैसे - सुभाषबाबु पर लिखी पँक्तियाँ - अजानबाहू उची करके वे बोले रक्त मुझे देना इसके बदले में भारत की आझादी तुम मुझसे लेना। या अंग्रेजी की टेल मी नाँट इन मोर्नफल नंबर्स लाईफ बट अँन एम्प्टी ड्रिम। या मराठी प्रसिध्द कविता अरे, विश्वकर्मा है श्रम का पुजारी जहाँ जुझते हाँत है। व्याकरण के लिए भी एसे गुर ही अपनाए थे उनकी चर्चा फिर कभी।
आज जब बच्चे अपने कामों में मग्न है, कुछ काल से विदेशवासी भी हैं, तो इस एकत्रित पढाई की यादे हमारे बंधन को मजबूत रखने में सहायक हो रही हैं।



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